रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर)
बंगाल प्रदेश के कलकत्ता शहर में रहने वाले देवेन्द्रनाथ ठाकुर के यहाँ शारदा देवी ने ७ मई १८६१ में पुत्र को जन्म दिया। वह चीदह भाई बहिनों में सबसे छोटे थे। पिता शिडलरह के जमींदार थे। पितामह ठाकुर द्वारिका नाथ प्रसिद्ध व्यापारी थे। माता शारदा देवी नाम के अनुरूप ही शान्त स्वभाव तथा धर्मपरायण थीं।
परिवार धन-धान्य सम्पन्न होकर सभी सुविधाओं से युक्त था। उनका लालन-पालन भी ठीक ढंग से ही हुआ। पढ़ाई का समय जान प्राथमिक शिक्षा के लिए 'ओरियन्टल सेमिनरी विद्यालय में प्रवेश लिया। बड़े होने पर 'नार्मल' विद्यालय में प्रवेश किया। स्कूली शिक्षा में उनका कोई मन नहीं लगता था।
अधिकतर शिक्षा उन्होंने घर में रहकर स्वाध्याय व स्वावलंबन के माध्यम से ही पूरी की। रवीन्द्रनाथ का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ किन्तु बंगाल की जनता ने उनके पितामह को ठाकुर की उपाधि प्रदान की थी। तब से ठाकुर कहलाने लगे। उपनयन संस्कार के बाद गीता, गायत्री और उपनिषदों का इन्होंने अपनी बाल्यावस्था में अध्ययन कर लिया।
वह कुशाग्र बुद्धि थे। पिताजी पक्के ब्रह्मसमाजी थे। रामकृष्ण परमहंस के पास भी जाया करते थे। बंगाल में उन्होंने धार्मिक साहित्यिक, कलात्मक और राजनीतिक क्षेत्र में भी नेतृत्व कर ऊँचाईयाँ दीं। अपने बेटे को वह उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे।
इसलिए १८७७ में बड़े भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ सत्रह वर्ष की आयु में लंदन इस आशा के साथ भेज दिया कि वह आई.सी-एस. की परीक्षा पास कर प्रशासनिक अधिकारी बने या सफल बैरिस्टर, पर पिताजी की आशाओं के विपरीत उनका वहाँ मन नहीं लगा और भारत वापस आकर पिताजी के साथ घर का कारोबार सम्भालने लगे। ६ दिसम्बर १८८३ में मृणालिनी देवी के साथ २२ वर्ष की उम्र में शुभ-विवाह सम्पन्न हो गया। जो १६०२ में स्वर्ग सिधार गयीं। उन्होंने एक पुत्री को भी जन्म दिया जो माँ के निधन के कुछ काल बाद चल बसी।
जमींदारी का काम सम्भालते इनका मन नहीं लगा और कलकत्ता आ गये। १६१० में 'गीतांजलि' नामक महाकाव्य पूर्ण कर अंग्रेजी अनुवाद कर प्रकाशित करवाया। १६१३ में गीतांजलि रचना के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार मिला। पुरस्कार से प्राप्त ८००० पौण्ड की सारी राशि को अपने द्वारा १६०१ में स्थापित 'शांति निकेतन' विद्यालय में लगाया जो विश्व भारती विश्वविद्यालय बना।
जिसने भारतीय संस्कृति व शिक्षा का प्रसार किया। १६१३ में जब वह तीसरी बार यूरोप की यात्रा पर गये 'तभी अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि 'ईट्स' के सम्पर्क में आये। महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने १६१६ में जापान व अमेरिका में महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिये। जापान में उनके व्याख्यान 'नेशनेलिज्म' तथा अमेरिका में 'पर्सनिलिटी के नाम से प्रकाशित हुए।
काव्य के क्षेत्र में वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी बन गये। केवल गद्य-पद्य ही नहीं नाटक और कहानियाँ भी लिखीं। कविताओं में प्रमुख काव्य इस नाते 'चयनिका' व 'गीतांजलि' तो उपन्यास में लिखित 'गोरा', 'आँख की किरकिरी', 'जुदाई की शाम', थी। नाटक में 'फाल्गुनी', 'डाकघर' व 'चित्रांगदा', वहीं कहानियों में ‘काबुली वाला' ने प्रसिद्धि पायी। गद्य निबंध में ‘जीवनस्मृति' 'साधना', पर्सनिलिटी व नेशनेलिज्म ने अपने अन्दर भरे ज्ञान को समाज के अभिमुख कर दिया।
हमारे देश के वर्तमान राष्ट्रगान, जनगणमन की रचना आपने ही की थी। स्वतन्त्रता संग्राम में आपके तेजस्वी विचारों ने धार देने का कार्य किया। १६०५ में अग्रेजों द्वारा बंगाल के विभाजन के विरुद्ध हुए आन्दोलन में हिस्सा ही नहीं लिया बल्कि नेतृत्व किया। उनके लिखे गीतों ने राष्ट्रभक्ति की उग्र ज्वाला भड़का दी। राजनीति में रुचि न होने के कारण वह किसी दल में सम्मिलित नहीं हुए परन्तु बाहर रहकर मातृभूमि की सेवा में वह आजीवन लगे रहे।
काका कालेलकर ने गुरुजी के बारे में कहा कि देश भक्ति उनका व्यसन नहीं अपितु उनका स्वभाव था। वे चाहते थे कि भारत के प्राचीन आदर्शों को फिर जाग्रत व जीवित होना चाहिए। १६१६ के जलियाँवाला नरसंहार से वे इस कदर दुखी हुए कि अंग्रेजों द्वारा प्राप्त सर्वोच्च सम्मान नाईटहुड का विरोध करते हुए वापस लौटा कर 'सर' की उपाधि का कभी प्रयोग नहीं किया।
द्वितीय विश्वयुद्ध १६३६ में प्रारम्भ हो गया था। मानवता के विनाश से दुखी हो ६ अगस्त १६४१ को १० वर्ष की आयु में विश्व में भारत को साहित्य के क्षेत्र में सम्मान दिलाने वाले कविवर महाकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर अपना शरीर छोड़, हम सबसे विदा हो गये।