महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप


महाराणा प्रताप का जन्म ६ मई सन् १५४० कुंभलगढ़ में जयवन्तीबाई के गभॆसे हुआ। राणा उदयसिंह की १८ रानियाँ और २२ पुत्र थे। प्रताप की माँ सबसे बडी व अपने सब भाईयों में बड़े थे। ६वीं शताब्दी में गुहादित्य (गुहिल) द्वारा स्थापित सिसोदिया में ६०वीं पीढ़ी में प्रताप का जन्म हुआ। वह सूर्यवंशी क्षत्रिय भगवान् राम के पुत्र कुश के वंशज थे। माँ द्वारा रामायण, महाभारत की कथाओं द्वारा कर्तव्य भाव का जागरण किया जाने लगा। ७ वर्ष की आयु होने पर पिता द्वारा माँ-बेटे को चित्तौड़ बुला झाली महल में निवास की व्यवस्था की। यहाँ रहकर सभी प्रकार की शस्त्रशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। प्रताप नाम के अनुसार प्रतापी ही थे। १७ वर्ष की आयु में बागड़, छप्पन व गोड़वाड़ क्षेत्रों को जीत लिया था। २३ अक्टूबर १५६७ में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। राणा उदयसिंह 'जयमल राठौड़' व पत्ता चूड़ावत को युद्ध का नेतृत्व दे अरावली की पहाड़ियों में बने गोगुन्दा के महलों में जाकर रहने लगे। ४ महीने के लंबे संघर्ष के बाद जयमल व पत्ता शहीद हो गये। ७००० क्षत्राणियों ने जौहर कर लिया। इस सदमे के कारण २८ फरवरी १८७२ को राणा उदयसिंह का होली के दिन निधन हो गया। मरने के पहले वह अपनी ७वीं रानी धीरबाई भटियाणी के पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी घोषित कर गये थे। जगमाल राजा बन गद्दी पर बैठ गये। राजा के संस्कार के बाद सभी सामन्तों को जब इसका पता लगा तो लगभग सभी ने इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था का विरोध किया और सालूम्बर के नरेश चूड़ावत कृष्णसिंह ने निभीकता से जगमाल को गद्दी से उतार प्रताप को राज सिंहासन पर बैठाया। 'महाराणा प्रताप की जय के गगनभेदी घोष लगने लगे। उनका राज्याभिषेक ३ मार्च १५७२ को गोगुन्दा में हुआ। सिंहासनासीन होते ही महाराणा प्रताप ने कठोर प्रतिज्ञा करते हुए कहा "जब तक शत्रुआत मैं अपनी पावन मातृभूमि को मुक्त नहीं करा लेता तब तक मैं न महलों में रहूँगा आरन सोने-चाँदी के बर्तनों में भोजन करूँगा। घास ही मेरे बिछौने और पत्तल दोने ही मेरे पात्र हा मैं अपनी दाढ़ी भी नहीं कटवाऊँगा।" महाराणा के दृढ़ निश्चय को सुन अब्दुल र खानखाना ने कहा “धर्म रहेगा, पृथ्वी भी रहेगी, पर मुगल साम्राज्य एक दिन नष्ट हो जाय" हे राणा विश्वंभर भगवान् पर भरोसा करके अपने भरोसे को अटल रखना।" इस समय तकअनेक स्वाभिमान शून्य राजपूत मुगल बादशाह अकबर की शरण में जा चुके थे, उनको बहनें बेटियाँ देकर सम्बन्ध बना लिये थे। महाराणा प्रताप ही उसे खटक रहे थे जो किसी भी कीमत पर अधीनता स्वीकार करने को तैयार न थे। अकबर ने सितम्बर १५७२ को जलाल खाँ कोरची के द्वारा संधि का प्रस्ताव भेजा जो असफल हो नवम्बर में वापस लौट गया। इतने पर भी अकबर निराश न हो मानसिंह को पुनः संधि का प्रस्ताव देकर भेजा। जून १५७३ में वार्ता असफल रही। वार्ता की आशा न छोड़ते हुए अक्टूबर १५७३ में मानसिंह के पिता भगवानदास को भेजा उससे भी बात बनती न देख अपने दरबार के नवरत्नों में से राजा टोडरमल को दिसम्बर १५७३ में भेजा जो निराश होकर लौट गया। दोनों ओर से युद्ध की अनिवार्यता सामने आ खड़ी हुई। मुस्लिम सामन्तों के विरोध के बाद भी अकबर ने राजा मानसिंह को युद्ध का सेनापति बना २ लाख की बड़ी सेना के साथ युद्ध करने भेज दिया। महाराणा के पास २२ हजार सेना ही थी। जिसमें अधिकांश पहाड़ी क्षेत्र के वनवासी थे। १८ जून १५७६ को हल्दीघाटी में जैसे ही अकबर की सेना ने प्रवेश किया कि पूर्व योजनानुसार घाटी के दोनों तरफ छिपे राणा के सैनिकों ने बाण और पत्थरों से जोरदार आक्रमण कर दिया। मुगल सेना की अपार क्षति हुई। अब हल्दी घाटी के मैदान में दोनों सेनाएँ आमने सामने थीं। राणा प्रताप व सैनिक वीरता से युद्ध कर रहे थे। मगल सैनिकों की लाशों के ढेर हो गये तभी राणा ने राष्ट्रद्रोही मानसिंह को हाथी पर बैठा देख भाले का प्रहार किया। भाला हाथी को लगने के कारण वह बच गया। सामने ही सलीम को देख इशारा पा चेतक ने हाथी के मस्तक पर पैर रख दिये। इस बार वार चूका और महावत मारा गया। राणा का हरावल दस्ता सेना के एकदम आगे युद्ध कर रहा था तो चन्द्रावल दस्ता बिल्कुल पीछे। युद्ध में हकीम खाँ पटान और ग्वालियर ने राजा रामसिंह व पुत्र प्रतापसिंह व शालिवाहन ने भी युद्ध में जौहर दिखा मुगल सेना को तितर-बितर कर दिया। चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ के भीमसिंह, देवगढ़ के रावत सांगा आदि वीरों ने पूरी निष्ठा और वीरता से युद्ध किया। राणा को मुगल सेना के भीतर घुसा जान शत्रुओं ने चारों तरफ से घेर लिया। उनकी जान को खतरा जान झाला सरदार मानसिंह ने राणा के मुकुट और राजचिह्न धारण कर महाराणा को कुशलतापूर्वक युद्ध से बाहर निकाल दिया। मानसिंह के हाथी की तलवार से घायल चेतक जब आगे बढ़ रहा था तो दो मुगल सैनिकों को राणा का पीछा करते देख शक्तिसिंह जो अकबर से जा मिला था उसका भ्रात भाव जाग उठा, उसने दोनों मुगल सैनिकों को मार कर राणा के पैरों में पड़कर किये की क्षमा माँगी। बनास नदी को पार कर बलिया के पास 'चेतक' ने दम तोड़ दिया। झाला मानसिंह भी वीरतापूर्वक लड़ते हुए खेत रहे। अकबर को आशानुरूप युद्ध में विजय न मिल सकीदबे पाँव सेना वापस चली गयी। राणा को सेना के लिए धन की आवश्यकता थी ऐसे ही समय में भामाशाह ने २५ लाख रुपये व २० हजार स्वर्ण अशर्फियाँ सहायता के रूप में दान की जो २५ हजार सेना का १२ वर्ष तक निर्वाह कर सके। सेना भेजकर गोगांडा दुर्ग पर जहाँ मानसिंह ठहरा था आक्रमण कर उदयपुर को भी जीत लिया। शेरपुर के किले में मिर्जा शेख की पत्नी और बच्चों को अमरसिंह ने बंदी बना लिया था उन्हें राणा प्रताप ने पुनः सम्मानजनक तरीके से वापस भिजवा दिया। १५७६ से १५८४ तक लगातार युद्ध कर खोये हुए किले पुनः प्राप्त कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर उसके बाद रचनात्मक कार्यों द्वारा राज्य के विकास का केन्द्र चावण्ड को बनाया। अपना अन्तकाल जान पुत्र अमरसिंह को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर १६ जनवरी, १५६७ को अपने पूर्ण प्रतिज्ञ विजयी शरीर को छोड़ दिया। चावण्ड से ३ कि.मी. दूर 'बड़ोली' ग्राम के 'केजड़' तालाब के पास अमरसिंह द्वारा दाह संस्कार कर दिया गयासिसोदिया कुल में राणा सांगा, राणा हम्मीर, आदि वीर राणा ही कहलाये पर पराक्रमी प्रताप महाराणा की उपाधि से विभूषित हुए