मैं नहीं कहता, मुझको भजो, साधो,
मैंने तुम्हें स्वच्छंद ही, भेजा है माधो,
मन तेरा है तेरा, तुम कर लो नियत्रित,
या बना आजाद, इसको करो स्वच्छद.
कब ये समझोगे ना जग ये घर है वासना,
मिलता है मानव जन्म करने को साधना,
आराधना करो ना करो मेरी साधना,
मुझको नहीं चढाओ, चादी या सोना,
तेरी प्रगति छिपी है, श्रम का पसीना,
कर्म जो करोगे, फल वही तो पाओगे,
मैं नहीं आता हं कहीं बीच बचौना,
मन बड़ा उन्मुक्त, बड़ा होता उश्रृंखल,
सच्ची प्रगति चाहिए तो उसको साध ना,
मत विकल करो हृदय, संसार वस्तु में
, नश्वर सभी पदार्थ हैं फिर क्यों है चाहना,
सब योनियों को पार, मक्ति दवार पर खड़े,
फिर लौट वहीं जाने का ढूंढो न बहाना,
तज मानों को जीव ना सक्षम है मुक्ति को,
है भाग्यशाली तू खड़ा है मुक्ति द्वार में,
क्यों उलझ रहा है, जग के जंजाल में,
मैं खड़ा बाहे पसारे, तुझे अंक में भर लू,
क्यों ज्ञान तज, अज्ञान पंक में धंसा है तू,
क्यों ज्ञान तज, अज्ञान पंक में धंसा है तू,
सुन बात एक, ऋषि मुनि देव कह गए,
मानस मे तुलसीदास, गीता हम भी कह गए,
अब छोड़ दो, हर समय, धन-धन की साधना,
थोड़ा समय निकालो, थोड़ा मन को साध ना,
थोड़ा समय निकालो, अब मन लो साध ना!
मनोज कुमार शुक्ल, से.नि. संयुक्त सचिव, F-6, अंसारी नगर (वेस्ट) नई दिल्ली-110029