महात्मा ज्योतिबा फुले
ज्योतिबा का जन्म गोविन्दराव व विमलाबाई के यहाँ १८२७ ई. को हुआ। इनका जन्म माली समाज में हुआ। पूर्वज फुलवारी सँवारने का कार्य करते थे। इसलिए फुले उपनाम प्रचलित हुआ। सतारा जिले के केकटगुल गाँव से निकलकर पूना के पास खानवडी गाँव और फिर पूना में आकर बस गये। एक वर्ष की उम्र में ही माताजी का देहान्त हो गया तब सगुणाबाई खंडक्षीर ने उन्हें पाला-पोसा।
जब सातवें वर्ष पाठशाला में प्रवेश दिलाया तो सामाजिक विषमता के कारण पाठशाला छोड़नी पड़ी। पिताजी के साथ किसानी का कार्य करने लगे। १८४० में उनका विवाह सतारा के नयागाँव के खण्डोजी नेवसे की आठ वर्षीय कन्या सावित्री से हो गया। ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा के कारण पुनः पढ़ाई प्रारम्भ की। १८४७ में स्कॉटिश मिशन स्कूल में प्रवेश मिल गया जहाँ सदाशिव बल्लाल गावंड़े नाम के ब्राह्मण से मित्रता कर पूना की प्रसिद्ध लहुजीमाँग व्यायामशाला में जा बलिष्ट होने का प्रयत्न करने लगे।
अस्पृश्यता उन दिनों भारत में चरम पर थी। जगह-जगह अपमानित होना पड़ता था। ज्योतिबा ने समझा कि निम्न जातियों की दुर्दशा का कारण अशिक्षा है। उसे दूर करने के लिए १८४८ के अगस्त माह में पूना के बुधवार पेठ में अछूत बालकों के लिए विद्यालय प्रारम्भ कर दिया। पर अनुभव आया कि दोनों कुलों से सम्बन्ध रखने और सँवारने वाली बालिकाओं को भी शिक्षा मिलनी चाहिए। अतः लड़कियों को भी प्रवेश दिया।
३ जुलाई १८५७ बुधवार पेठ के ही अण्णा साहब चिपलूणकर के भवन में लड़कियों का अलग विद्यालय प्रारम्भ कर दिया। पत्नी सावित्री बाई जो पूर्व में मिचेल के ‘नार्मल' स्कूल में चार वर्ष पढ़ा चुकी थीं, उन्हें व सगुणाबाई को विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी सौंप दी। सावित्रीबाई को भारत की प्रथम महिला शिक्षिका होने का भी श्रेय प्राप्त है। तथाकथित शेष समाज को भी अध्ययन का लाभ हो उसके लिए १८५२ में वाचनालय प्रारम्भ किया।
परिवार की आय के लिए वे स्वयं दर्जी का कार्य करते व सावित्री रजाइयाँ तैयार कर बेचने का काम करती१६ नवम्बर १८५२ को मुम्बई के तत्कालीन राज्यपाल ने ज्योतिबा फुले को शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य करने के लिए सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया। भ्रूण हत्या रोकने की दृष्टि से अनचाहे गर्भ के जचकी के लिए प्रतिबन्धक गृह की स्थापना कर वर्णसंकर बालक के पागों की रक्षा कर अनाथाश्रम प्रारम्भ किया। विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए प्रयास किया।
२४ सितम्बर सन् १९७३ में 'सत्य शोधक समाज' की स्थापना कर वे पहले अध्यक्ष बने। कुछ ही दिनों में यह समाज पवित्र और आवश्यक उद्देश्यों के कारण आन्दोलन बनकर खड़ा हो पूरे महाराष्ट्र में फैल गया। १८७५ में स्थापित हुए आर्य समाज की, मुम्बई में सार्वजनिक रूप से ५ सितम्बर को निकाली गई रैली में दयानन्द के साथ बड़ी संख्या में सहयोगियों को लेकर उपस्थित हुए।
१८७६ से १८७८ तक पूना नगर पालिका के जनप्रतिनिधि भी रहे। वहाँ जरूरतमंदों के पक्ष में आवाज उठाई और शराब की दुकानें बन्द करवायी। शिक्षा में सुधार के लिए सर विलियम हंटर की अध्यक्षता में बने कमीशन के सामने अपने सुझाव-ग्रामीणों के लिए स्वतंत्र शिक्षा व्यवस्था, छात्रों को इतिहास, भूगोल, गणित के साथ कृषि का प्रारंभिक ज्ञान और शिक्षा-जीविकाभिमुख होने का सुझाव दिया। २ मार्च को १८८८ को पूना में ड्यूक और डचेस ऑफ कॅनॉट के सम्मान में दिये गये भोज में अपनी परम्परागत किसान वेशभूषा में पहुँच ड्यूक को संबोधित करते हुए स्पष्ट कहा, “यहाँ उपस्थित मेहमानों के चमचमाते कपड़े, हीरे, गहने देखकर यह मत समझ लेना कि हिन्दुस्तान समृद्ध है।
सच्चा हिन्दुस्तान तो देहात में है और वहाँ आज भी लोग निर्धन, नंगे-भूखे, और बेघर हैं। भारत के असली चित्र का वर्णन करने का साहस दिखाया। मई १८८८ को माण्डवी के कोलवाड़ा की सभा में ज्योतिबा की षष्टिपूर्ति के अवसर पर नागरिक अभिनन्दन में इस महान समाजसेवी को 'महात्मा' की उपाधि से सम्मानित किया। वह एक अच्छे लेखक भी थे। १८८३ में "किसान का कोड़ा" लिखा जो बहुत चर्चित हुआ। उसके बाद सत्सार, इशारा, अछूतों की कैफियत, नाटक छत्रपति शिवाजी, राजा भोंसला का पड़ावा, गुलाम गिरि आदि पुस्तकें लिखी। ज्योतिबा को कोई संतान न होने से ब्राह्मणी काशीबाई के गर्भ से पैदा अनाम कुलगोत्र वाले यशवन्त को १० जुलाई १८८७ को गोद ले पुत्र मानकर सम्पत्ति के पूरे अधिकार की वसीयत भी लिख दी। १८६० में लकवा मारा तब वह 'सत्य धर्म' पुस्तक लिख रहे थे जिसे बाद में बाँये हाथ से लिखकर पूरा किया। ऐसे जीवट, महान समाज सुधारक महात्मा फुले २८ नवम्बर १८६० को अपनी इहलीला समाप्त कर चले गये। बच गया उनके कृतित्व का यश ।