आइए जानते हैं कुछ रहस्य को ॐ सच्चिदानंद, प्रकृति, पंचमहाभूत, नवग्रह, लोक, सात पाताल, स्वर, दिशाएं, काल

ॐ सच्चिदानन्द


सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व का वर्णन करते हुए ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में कहा गया है, तब न सत था न असत; न परमाण था न अवकाश; न मृत्यू थी न अमरत्व; न दिन था न रात; न दृष्टा था न दृश्यउस समय स्पंदनशक्ति-युक्त वह एक तत्त्व था। जिसे हम परमात्मा-ईश्वर कहते हैं। सत् चित् (ज्ञान स्वरूप) आनन्दस्वरूप ब्रह्म कहते हैं। तब उसकी इच्छा हुई “एकोऽहमबहुस्यामि" मैं एक से अनेक हो जाऊँ। तब महामाया के प्रभाव से प्रकम्पन हुआ और नाद सुनाई दिया। “तस्य वाचकः प्रणवः" योग द० १/२७ उस ईश्वर का वाचक शब्द प्रणव (ॐ) है। भगवान् श्रीकृष्णजी गीता में कहते हैं “गिरामस्म्येकमक्षरम्” १०/२५ कि मैं शब्दों में ओंकार . शब्द 'अ' 'उ“म्' से बना है। त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश क्रमशः ॐ का प्रतिनिधित्व करते हैं। "त्रिवृद्ब्रह्माक्षरंपरम्"। श्रीमद्भागवत् २/१/१७ इन तीन मात्राओं से युक्त प्रणव तीनों देवों का ही प्रतिनिधित्व करता है। यह ओम् शब्द सृष्टि का प्रथम अक्षर है इसलिये सभी मांगलिक कार्यों में, वेदपाठों में और मंत्रों में पूर्व ही प्रयुक्त होता है। वह परमात्मा अव्यक्त, अजन्मा, अविनाशी, अप्रमेय, नित्यस्वरूप, अचिन्त्य, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, सर्वव्यापी, अचल और कालों का भी महाकाल है। वह भक्तों के लिए साकार और ज्ञानियों-योगियों के लिए वह निराकार है। वही ईश्वर "जब-जब होय धरम कै हानी" तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा....। राम मा० “यदा यदा हि धर्मस्य.....परित्राणाय साधूनां....." भगीता ४/७, ८ जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए प्रत्येक युग में उपयुक्त समय पर विविध रूप धारण करता है। वह अपनी विराट सत्ता का दर्शन कभी बालक बनकर यशोदा और कौसल्या माँ को कराता है, कभी अर्जुन, राजा बलि उत्तंक मुनि, तो कहीं दुर्योधन की सभा में। उस परमात्मा के “जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं" भगीता ४/६ जन्म कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक हैं। “न मां कर्माणि लिम्पन्ति” भ०गीता ४/१४ कर्म के फल में स्पृहा न होने के कारण वह कमों में बँधता नहीं है। “चातुर्वयं मयासृष्टं गुण कर्म विभागशः । भ०गीता ४/१३ उसी ने गुण और कमों के अनुसार चारों वर्गों की सृष्टि की है। ऐसे परमपिता परमात्मा को अनंत बार नमस्कार है


प्रकृति


सतोगण-रजोगुण-तमोगुण इन तीनों गुणों की साम्यावस्था को ही प्रकृति कहा गया । इन तीनों गुणों से युक्त होकर भगवान ब्रह्मा सृष्टि का सृजन करते हैं, विष्ण पालन कर हैं व रुद्र संहार करते हैं। जो कुछ भी दिखाई देता है वह तीनों गुणों से ही युक्त है। सत्वगण निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकाररहित है। वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के अभिमान से मनुष्य को बाँधता है। रागरूप रजोगुण कामना और आसक्ति से यक्त है। यह जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बाँधता है। सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाला तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न है। यह जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है। सत्वगुण सुख में रजोगुण कर्म में व तमोगुण ज्ञान को ढककर प्रमाद में लगाता हैरजोगुण व तमोगुण को दबाकर सतोगुण, सत्व और तम को दबाकर रजोगुण वैसे ही सत्वगुण व रजगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है। सत्वगुण के बढ़ने पर अंतःकरण व इन्द्रियों में चेतनता व विवेकशक्ति उत्पन्न होती है। रजोगुण के बढ़ने पर लोभ प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि, कमों में सकामभाव का आरम्भ, अशांति और विषयभोगों की लालसा उत्पन्न होती हैतमोगुण से अंतःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्यकों में अप्रवृत्ति, प्रमाद, व्यर्थ चेष्टा, निद्रादि उत्पन्न होते हैं। सत्वगुण की प्रधानता के समय मरने पर स्वर्गादिलोक, रजोगुण के समय मरने पर कर्मासक्त मनुष्यों में तथा तमोगुण की प्रधानता के समय मरने वाला कीट, पशु आदि मूढयोनियों में उत्पन्न होता है। सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान और वैराग्यादि है, राजस कर्म का फल दुःख व तामस कर्म का फल अज्ञान कहा गया है। सत्त्व से ज्ञान, रज से लोभ और तम से प्रमाद व मोह उत्पन्न होता है। नाना प्रकार की सब योनियों में जितना मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकति तो उनकी गर्भ धारण करने वाला माता है और परमात्मा बीज स्थापित करने वाला पिता। प्रकृति से ही सत,रज और तमागुण उत्पन्न हुए। प्रकृति ही माया है


पंचमहाभूत


___ पाँच महाभूतों से संपूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई है। “महाभूतानि खं वायुरग्निपस्तथा च भूः।" आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। इन पंचमहाभूतों का अपना-अपना एक गुण है" शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः।।" शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। पृथ्वी में पाँच गुण-शब्द, स्पर्श, रूप और गंध है। जल में चार गुण-शब्द, स्पर्श, रूप और रस हैअग्नि(तेज) में तीन गुण-शब्द, स्पर्श, रूप है। वायु के दो गुण-शब्द और स्पर्शआकाश में एक ही गुण है आकाशलोकप्रतिष्ठित करने वाले पाँचों भूतों में पंद्रह गुण बताये गये हैं“आनुपूर्व्या विनश्यन्ति जायन्ते चानुपूर्वशः ।।" ये सब भूत क्रम से नष्ट होते हैं और क्रम से ही उत्पन्न होते हैं। पृथ्वी आदि के क्रम में लय होता है और आकाशादि के क्रम में उत्पन्न होते हैं। प्राणियों का शरीर इन पाँच महाभूतों का ही संघात है। इसमें चेष्टा या गति है वह वायु का भाग है। जो खोखलापन है, वह आकाश का अंश है। ऊष्मा(गर्मी) अग्नि का अंश है। रक्तादि तरल पदार्थ है वह जल अंश है और हड्डी, मांस आदि ठोस पदार्थ पृथ्वी के अंश हैं। इन्हीं के सूक्ष्म अंश श्रोत्र(कान), घ्राण(नासिका), रसना(जिहा), त्वचा और नेत्र ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। शरीर में त्वचा, मांस, हड्डी, मज्जा और स्नायु पृथ्वी से त्वचा, क्रोध, नेत्र, ऊष्मा और जठरानल ये पाँच अग्नि से, कान, नासिका, मुख, हृदय और उदर यह आकाश से, कफ, पित्त, स्वेद, चर्बी और रुधिर ये पाँच वस्तुएँ जलरूप हैंपृथ्वी के गुण गन्ध के नौ भेद हैं, जल के छह भेद, अग्नि(रूप) के सोलह भेद, वायु(स्पर्श) के बारह भेद तथा आकाश(शब्द) के सात भेद कहे गये हैंशब्द श्रोत्रेन्द्रिय तथा शरीर के संपूर्ण छिद्र आकाश से प्राण, चेष्टा व स्पर्श वायु से रूप, नेत्र, जठरानल अग्नि से रस, रसना और स्नेह जल से व गंध, नासिका और शरीर यह तीनों ही भूमि के गुण हैं। इस प्रकार इन्द्रिय समुदाय सहित यह शरीर पांचभौतिक बताया गया है  


नवग्रह


विशाल आकाश में नै ग्रह कहे गये हैं। यथा- सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, राह और केतु। सूर्य में सुषुम्न, हरिकेश, विश्वकर्मा, विध्वव्यचा, संयद्वसु, अर्वावसु तथा स्वराडू ये सात रश्मियाँ कही गयी हैं। माघ में सूर्य का नाम वरुण, फाल्गुन में पूषा, चैत्र में अंश, वैशाख में धाता, ज्येष्ठ में इन्द्र, आषाढ़ में सविता, श्रावण में विवश्वान, भाद्रपद में भग, आश्विन में पर्जन्य, कार्तिक में त्वष्टा, मार्गशीष में मित्र और पौष में सनातन विष्णु कहलाते हैं। सूर्य वर्ष में प्रतिमाह राशि को बदलते हुए बारह राशियों पर घूमते हैं। उनके रथ में सात घोडे जुते हैंअरुण उनके सारथी हैं। सूर्य के प्रभाव से सभी नक्षत्र एवं तारे नित्य बढते हैंचन्द्रमा का रथ तीन चक्रों वाला है। उसके वाम और दक्षिण भाग में कुन्द पुष्प के समान वर्ण वाले दस अश्व जुते हैं। शुक्ल के पंद्रह दिन अपनी कलाओं का विस्तार करते हैं व कृष्णपक्ष में वह क्षीण होती है। सुषुम्न नामक सूर्य की रश्मि चन्द्रमा की चाँदनी को पुष्ट करती है। पूर्णिमा की पूर्ण चाँदनी देख समुद्र में ज्वार-भाटा आता हैसमुद्र ही इनके जन्मदाता हैंमंगल- आठ घोड़ों से युक्त रहने वाला मंगल का स्वर्णमय रथ है। सूर्य की संयद्वसु नाम से प्रसिद्ध रश्मि मंगल का नित्य पोषण करती है। बुध के रथ में जल से उत्पन्न वेगवान आठ घोडे जुते हुए हैं वह उसी रथ से सर्वत्र गमन करते हैं। सूर्य की विश्वकर्मा नामक रश्मि सदा पोषण करती हैबृहस्पति- का भी आठ घोडों से युक्त रथ स्वर्ण निर्मित है। सूर्य की अर्वावसु नामक रश्मि बृहस्पति का पोषण करती है। शुक्र का रथ भूमि से उत्पन्न दस घोडों द्वारा धारण किया जाता है। सूर्य की विश्वव्यचा नाम की जो रश्मि है, वह नित्य शुक्र ग्रह का पोषण करती हैलोहे से बने शनि के दिव्य रथ को आठ घोडे वहन करते हैं। सूर्य की स्वराड् नामक रश्मि उनका पोषण करती हैराहु का रथ छह घोडों से युक्त हैकेतु का रथ भी छह सुन्दर घोडों से युक्त है। इस प्रकार सभी ग्रह अपनी-अपनी कक्षा में रहकर सृष्टि का संचालन करते हैं। भूमि से एक लाख योजन ऊपर सूर्य का मण्डल स्थित है। वहाँ से भी एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा का मण्डल कहा गया है। नक्षत्रमण्डल से उत्तर दो लाख योजन की दूरी पर बुध है। बुध से उतने ही प्रमाण की दूरी पर शुक्र स्थित हैशुक्र से उतने ही प्रमाण पर मंगल की स्थिति है। मंगल से दो लाख योजन की दूरी पर देवगुरु बृहस्पति विराजमान हैंबृहस्पति से भी दो लाख योजन की दूरी पर सूर्य पुत्र शनैश्चर स्थित हैं। ग्रहों के मण्डल से एक लाख योजन की दूरी पर सप्तर्षि मण्डल प्रकाशित है और वहाँ से भी एक लाख योजन ऊपर ध्रुव स्थित है जो संपूर्ण ज्योतिश्चक्र का केन्द्र रूप है।


लोक  


भूः भूवः और स्वः अर्थात भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक। इन्हीं तीनों को त्रैलोक्य कहा गया है। भगवान् वामन ने विराट रूप धारण कर अपने पग से राजा बलि के दान देने पर नाप लिया था। व्यवस्था की दृष्टि से सात लोक ऊपर और सात नीचे कहे गये हैंपृथ्वी पर स्थित सभी स्थान जहाँ पैदल जाया जा सकता है वह भूलोक कहलाता है। भूमि और सर्य के मध्यवर्ती लोक को भुवर्लोक कहते हैंध्रुव तथा सूर्यलोक के बीच जो चौदह लाख योजन का अवकाश है उसे लोकस्थिति पर विचार करने वाले विज्ञ पुरुषों ने स्वर्गलोक कहा है। ध्रुव से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक बताया गया है। उससे भी दो करोड़ योजन तक फैला हुआ जनलोक है, जहाँ सनकादि निवास करते हैं। इससे भी ऊपर चार हजार करोड़ योजन तक तपलोक माना गया है, जहाँ वैराज नाम वाले देवता निवास करते हैं। तपोलोक से ऊपर उसकी अपेक्षा छह गुने विस्तारवाला सत्यलोक विराजमान् है, जहाँ ऐसे लोग निवास करते हैं जिनकी पुनर्मृत्यु नहीं होती है यानि ज्ञान प्राप्त करके वह ब्रह्मा जी के साथ युक्त हो जाते हैं। सत्यलोक ही ब्रह्मलोक माना गया हैउससे ऊपर अट्ठारह करोड़ पच्चीस लाख योजन पर परम कल्याणमय धाम प्रकाशित होता है, उसकी कोई उपमा नहीं है। वह सर्वोपरि विराजमान है। इनमें से जनलोक, तपलोक व सत्यलोक ये तीनों अकृतक (नित्य) लोक हैं। कृतक और अकृतक लोकों के मध्य में महर्लोक की स्थिति मानी गयी है।


सात पाताल- भूमि की ऊँचाई सत्तर हजार योजन की है इसके भीतर सात पाताल हैं जो एक-दूसरे से दस-दस हजार योजन की दूरी पर हैं। उनके नाम-अतल, वितल, नितल रसातल, तलातल, सुतल तथा पाताल हैं। वहाँ की भूमियाँ सुंदर महलों से शोभित हैं। वे क्रमशः कृष्ण, शुक्ल, अरुण, पीत, कंकरीली, पथरीली तथा सुवर्णमयी हैं। उन पातालों में दानव, दैत्य और नाग संघ बनाकर निवास करते हैं। न वहाँ पर गर्मी है न सर्दी है न वर्षा न कोई कष्टब्रह्मा जी द्वारा स्थापित शिवलिंग पाताल में हाटकेश्वर के नाम से है जिनकी सैकड़ों नाग आराधना करते हैंउक्त तीनों लोकों को वामन से विराट बने भगवान् ने अपने तीन पगों से नापकर राजाबलि को सुतल लोक भेज दिया था


स्वर


इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद के साथ हुई है। उस नाद का प्रतीक "ॐ" है जिसे नादब्रह्म कहा गया है। भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं "गिरामस्म्येकमक्षरम् ।। १०/२५ अर्जुन! शब्दों में एक अक्षर अर्थात ओंकार मैं हूँ। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने "तस्यवाचकः प्रणवः ।। १/२७ कहा है। यही नाद सृष्टि में विभिन्न रूपों से अभिव्यक्त होने वाला मनुष्यों में वाणी के रूप में व्यक्त होता है। महर्षि पाणिनि ने वाणी के चार पाद बताये हैं। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरीध्वनि का मूल आधार आत्मा है जहाँ से ध्वनि उत्पन्न होती है उसे केवल अनुभव किया जा सकता है। इसे ही परावाणी कहा जाता हैवहाँ से आत्मित भाव बुद्धि की सहायता से कर्ता के मन-पटल पर कर्म या क्रिया का चित्र देखता है वाणी का वह स्वरूप पश्यन्ती कहलाता हैइसके आगे विचार शब्दरूप बनकर निःश्वास की सहायता से कण्ठ तक आता है यही मध्यमावाणी कही गयी है। उक्त तीनों रूप दूसरों को सुनाई नहीं देते हैं आगे यही विचार पंच स्पर्श स्थानों की सहायता से भिन्नाभिन्न रूप में वाणी द्वारा अभिव्यक्त होता है तो वही कानों से सुनाई देने वाली वाणी बैखरी कहलती हैइस वाणी द्वारा ही जीवन का सारा व्यवहार होता है। 'क' वर्ग कंठव्य, 'च' वर्ग तालव्य, 'ट' वर्ग मूर्धन्य, 'त' वर्ग दन्तव्य तथा 'प' वर्ग ओष्ठ्य कहे गये हैं। जिनकी सहायता से ध्वनि को शब्द का रूप दिया जाता है। महाभारत में सात स्वरों की चर्चा की गई है। ‘षड्ज ऋषभगान्धारौ मध्यमों धैवस्तथा। पंचमश्चापि विज्ञेयस्तथा चापि निषादवान् ।। शांतिपर्व १८४/३६ यानी षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा सातवाँ निषाद है। सा रे ग म प ध नी ये संगीत शास्त्र में सात स्वर माने गये हैं। स्वर उदात्त (उच्चस्वर), अनुदात्त (नीचा स्वर) और स्वरित (मध्यम स्वर) कहा गया है। नि ग जहाँ उदात्त स्वर है वहीं रे था अनुदात्त स म प ये स्वरित कहे गये हैं। मनुष्य की चलने वाली श्वास को भी स्वर कहा गया है। बायाँ (इडा-चंद्र), दायाँ (पिंगला-सूर्य) तथा मध्य में सुषुम्णा कहा जाता है। वाम नाडी अमृत रूप होकर जगत को आप्यायित करती है वही दक्षिण नाडी रौद्ररूप गुण से जगत का शोषण करती है। ये दोनों प्रवाह यदि समान हो जायें तो मृत्यु आ पहुँचती है। वाम नाडी के प्रधान रहते यात्रा, शुभ कर्म, विष को दूर करना, लाभादि कर्म, विजय हेतु यात्रा आदि में शुभ मानी गयी हैं। वहीं! घर में प्रवेश के समय, क्रूर कर्म करते समय, भोजन, मैथुन, युद्धारम्भ, उच्चारण, घात-प्रतिघात आदि कार्यों के समय दक्षिण नाडी का चलना शुभ कहा गया है। “दिन में चलावे चन्द्रमा, राति चलावे सूर। कहें कबीर धर्मदास सों उम्र रहे भरपूर ।। 


दिशाएँ


- ब्रह्मा जी को सृष्टि का निर्माण करते समय यह चिंता हुई कि मेरी उत्पन्न प्रजा का आधार क्या होगा ? अतः उन्होंने संकल्प लिया कि आभ्यंतर - स्थान उत्पन्न हों। उनके इस प्रकार विचार करते ही उन परमप्रभु के कानों से दश तेजस्वी कन्याओं का प्रादुर्भाव हुआउनमें से पूर्वा, दक्षिणा, पश्चिमा, उत्तरा, ऊर्ध्वा और अधरा - ये छह कन्यायें तो मुख्य मानी गयीं। साथ ही उन कन्याओं के मध्य में और चार कन्याएँ, परम सुन्दर रूप वाली, महाभाग्यशालिनी उत्पन्न हुई। तब उन कन्याओं ने पिता ब्रह्मा जी से अपने लिए पति और रहने के लिए स्थान की याचना की। ब्रह्मा जी ने लोकपालों की सृष्टि कर कन्याओं को बुलाकर उनका विवाह कर दिया। पूर्वा का इन्द्र के साथ, आग्नेयीदिक् का अग्निदेव के साथ, दक्षिणा का यम के साथ, नैर्ऋत्री का निर्ऋति के साथ, पश्चिमा का वरुण के साथ, वायव्यादिक् का वायव्य के साथ, उत्तरा का कुबेर के साथ तथा ईशानादिक् का भगवान् शंकर के साथ विवाह का प्रबन्ध कर दिया। ऊर्ध्व दिशा के अधिष्ठाता वे स्वयं बने और अधोलोक की अध्यक्षता उन्होंने शेषनाग को दीसभी दिशाओं को पति निर्धारित कर देने के बाद ब्रह्मा जी ने उनके लिए दशमी की तिथि निर्धारित कर दी जो उन्हें अत्यंत प्रिय लगी। वह अपने पतियों के साथ क्रमशः अमरावतीपुरी, तेजोवतीपुरी, संयमनीपुरी, कृष्णवतीपुरी, शुद्धवतीपुरी, गंधवतीपुरी, महोदयापुरी और मनोहरापुरी में सुखपूर्वक निवास करने लगीं


काल


हमारे महापुरुषों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व ही काल (समय) को जान लिया थामहाभारत के शांतिपर्व में शुकदेव के पूछने पर व्यास जी ने बताया कि पन्द्रह निमेष की एक काष्ठा, तीस काष्ठा की एक कला, तीस कला का एक मुहूर्त, तीस कला और तीन काष्ठा का एक मुहूर्त तीस मुहूत्त, का एक दिन-रात होता है। तीस दिन-रात का एक मास और बारह मासों का एक संवत्सर बताया गया है। छह माह उत्तरायन, छह माह दक्षिणायन से एक वर्ष बनता है। मनुष्यों के शुक्लपक्ष के पन्द्रह दिन का पितरों का एक दिन व कृष्णपक्ष के पन्द्रह दिन उनकी रात्रि होती हैमनुष्यों के छह माह उत्तरायन देवताओं का एक दिन है व छह माह दक्षिणायन यह उनकी रात्रि। मनुष्य के एक वर्ष में देवताओं का एक दिन-रात होता हैश्रीमद्भागवत में विदुर जी के पूछने पर मैत्रेयी जी काष्ठा का वर्णन करते हुए कहती हैं, दो परमाणु का एक अणु, तीन अणु का एक त्रसरेणु, तीन त्रसरेणु की एक त्रुटि, एक सौ त्रुटि का एक वेध, तीन वेध का एक लव, तीन लव का एक निमेष, तीन निमेष का एक क्षण, पांच क्षण की एक काष्ठा, पन्द्रह काष्ठा का एक लघु, पन्द्रह लघु की एक नाडिका, दो नाडिका का एक मुहूत होता है। दिन के घटने-बढ़ने के अनुसार (दिन एवं रात्रि की दोनों सन्धियों के दो मुहूर्त को छोड़कर) छह या सात नाडिका का एक प्रहर होता है इसे याम भी कहते हैं। इसी प्रकार चार प्रहर का दिन व चार प्रहर की रात्रि जानो। इस प्रकार संवत्सरशतं नणां पर मायुर्निरूपितम्। ऐसे एक सौ वर्ष की मनुष्य की परम आयु बतायी गयी है। चार युगों में कलियुग की आयु चार लाख बत्तीस हजार वर्ष, द्वापरयुग आठ लाख चौसठ हजार वर्ष, त्रेतायुग की बारह लाख छियानवे हजार वर्ष व सतयुग की सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्ष की आयु कही गयी है। चारों युगों की एक चतुर्युगी व इकहत्तर चतुर्युगी का एक मन्वन्तर और चौदह मन्वन्तर का एक कल्प होता है। एक कल्प ब्रह्मा का दिन व उतनी बड़ी रात्रि होती है। इस प्रकार की आयु से ब्रह्मा की सौ वर्ष की आयु होती है। जब ब्रह्मा मरता है तब विष्णु का एक निमेष होता है। उसके बाद कालरूप शिव का काल प्रारंभ होता है जो अनन्त है।