फांसी पर लटकते वक्त भी भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू के चेहरे पर मुस्कान थी
‘एक जीवन और एक ध्येय’ वाले तीन मित्र भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु, इन तीनों की मित्रता क्रांति के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। बसंती चोले के इन दीवानों की ऐसी मित्रता थी जो जीवन के अंतिम क्षण तक साथ थी और बलिदान के बाद भी एक साथ उनका स्मरण किया जाता है।
‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ यह गीत प्रत्येक भारतीय हृदय को भारतमाता के प्रति अगाध प्रेम से भर देता है। यह वही गीत है जिसे गाकर हजारों क्रांतिकारियों ने हंसते-हंसते देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव इन तीनों क्रांतिकारियों ने अपने बलिदानी जीवन से इस गीत को चरितार्थ कर दिया। यही कारण है कि ये महान बलिदानी भारत के युवाहृदय की धड़कन हैं। इन्हीं की प्रेरणा से हर कोई कह उठता है - "मेरा रंग दे बसंती चोला।" यह बसंती रंग का अर्थ क्या है?...बसंती रंग त्याग का प्रतीक है, जिस रंग को संन्यासी धारण करते हैं। केसरिया (भगवा) रंग जिसे भगतसिंह प्यार से बसंती रंग कहते थे।
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण प्रसंगों को उनके बलिदान दिन पर स्मरण करें
जलियांवाला बाग
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में जलियांवाला बाग हत्याकांड अंग्रेजी शासन का क्रूर चेहरा का प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस हत्याकांड को कोई भी भारतीय नहीं भूल सकता। इस घटना ने ही भारत के इतिहास में सशस्त्र क्रांति को मुखर किया।
ब्रिटिश शासन ने स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचलने के लिए ‘रौलट एक्ट’ नामक कानून लाया, जिसके द्वारा किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमें के गिरफ्तार करने और सजा देने का प्रावधान था। अंग्रेजी शासन के इस अन्यायपूर्ण नीति के विरुद्ध 13 अप्रैल, 1919 में पंजाब के जलियांवाला बाग में एक बड़ी सभा का आयोजन किया गया। लगभग दस हजार संख्या से भरे उस भव्य सभा में जनरल डायर के आदेश पर चारों ओर से निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाई गईं। हजारों की संख्या में लोग मारे गए। उस मैदान में अपने प्राण बचाने के लिए सैकड़ों लोग कुएं में कूद गए। लाशों से भरे उस मैदान में रक्त से गीली मिट्टी को देखकर हृदय पीड़ा से भर उठता। जलियांवाला बाग की इस घटना से एक बारह वर्षीय छात्र के कोमल हृदय में संवेदना की अग्नि धधक उठी। रक्त से गीली उस मिट्टी को बोतल में भरकर अश्रुभरे आंखों से वह लाशों को देख रहा था। शहीदों के रक्त को हाथ में लेकर उसने शपथ ली कि ‘जब तक अंग्रेज अत्याचारियों से भारत को मुक्ति नहीं मिलेगी, मैं चैन से नहीं बैठूंगा।’ यही बालक सरदार भगत सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भगत सिंह
भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को पंजाब के लायलपुर प्रान्त के बंगा नामक गांव में हुआ था। देशभक्ति का पाठ उन्होंने अर्जुन पुत्र अभिमन्यु की तरह माँ के गर्भ से ही सीखना शुरू कर दिया था। भगतसिंह के पिता किशनसिंह स्वयं एक क्रांतिकारी थे। उनके घर ‘क्रांति निकेतन’ में कई क्रांतिकारी एकत्र होते थे। घर के वातावरण में देशभक्ति की चर्चा और गीतों का मेला लगा रहता था। एक बार खेत में खेलते हुए वह जमीन में पिस्तौल गाड़ रहा था। पिता ने उससे पूछा, “क्या कर रहे हो बेटा भगत” तो बालक ने तत्काल उत्तर दिया, “पिताजी मैं पिस्तौल बो रहा हूं। जब इसका पेड़ बन जाएगा तो आम की तरह अनेक पिस्तौल लगेंगी। मैं सब पिस्तौलों को अपने मित्रों में बाँट दूंगा और हम सभी मित्र मिलकर अंग्रेजों को खत्म कर देंगे।” देश के प्रति इतना चिन्तन क्या आज के बालकों में दृष्टिगोचर होता है? क्या आज भारत की सुरक्षा, विकास और समृद्धि के लिए मौलिक विचारों का वातावरण हम समाज में बना पाते हैं? क्या हम सच में देशभक्त हैं? इस प्रकार के प्रश्न क्या कभी हम अपने आप से पूछते चाहिए।
सुखदेव थापर
राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों के हृदय में भारत के प्रति श्रद्धा, समर्पण और त्याग की अटूट धारा प्रवाहित होती है। झांसी रानी के एक चित्र को देखकर बालक सुखदेव ने माँ से पूछा, “माँ ! मैं भी वीर बनना चाहता हूं। झांसी की रानी की तरह अंग्रेजों से युद्ध करना चाहता हूं।” पुत्र की इस बात को सुनकर उसकी माँ गद्गद् हो गई।
लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ते समय सुखदेव ने अपने मन में संकल्प किया कि वे महाविद्यालय में ही अपने राष्ट्रभक्त मित्रों की टोली का निर्माण करेंगे।
शिवराम हरि राजगुरु
पुणे जिला के खेडा नामक छोटे से गांव में (1908) में जन्में शिवराम हरि राजगुरु जब 6 वर्ष के थे, उनके पिता का निधन हो गया। वे बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी विद्याध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने आ गए थे। इन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंन्थों तथा वेदों का अध्ययन किया था। लघु सिद्धान्त कौमुदी जैसा क्लिष्ट ग्रन्थ बहुत कम आयु में कण्ठस्थ कर लिया था। राजगुरु को व्यायाम का बहुत शौक था और वे छत्रपति शिवाजी महाराज की छापामार युद्ध-शैली को बहुत मानते थे।
अदभुत मित्रता जो अंत तक चली
‘एक जीवन और एक ध्येय’ वाले तीन मित्र भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु, इन तीनों की मित्रता क्रांति के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। बसंती चोला के इन दीवानों की ऐसी मित्रता थी जो जीवन के अंतिम क्षण तक साथ थी और बलिदान के बाद भी एक साथ उनका स्मरण किया जाता है।
भगतसिंह की मातृभाषा पंजाबी थी परंतु उन्होंने हिन्दी व देव भाषा संस्कृत का भी अध्ययन किया। अंग्रेजी भाषा में वे इतने प्रवीण थे कि अंग्रेजी भाषा में इतने कुशलतापूर्वक बयान दिया कि कानूनी अधिकारियों के मन में उनके प्रति प्रशंसा की भावना थी।
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ये तीनों शारीरिक शक्ति, निष्ठा व भक्ति के कारण बड़े-बड़े पहलवानों को भी दोनों हाथों से उठाकर हवा में झुलाकर फेंक देते। युवा आयु में देश सेवा की भावना का निर्माण होना गौरव की बात है। कॉलेज में रहकर ये लोग ड्रामा करते। राणा प्रताप, शिवाजी आदि पर आधारित नाटक प्रस्तुत कर महाविद्यालय में देश प्रेम का वातावरण बनाते। मैजिक लालटेन में वे शहीदों के चित्र दिखलाते थे। इस प्रकार के अनेक रोचक उपक्रमों के माध्यम से सरदार भगतसिंह की क्रांति की टोली बड़ी होती गई। इधर भगतसिंह के माता-पिता ने जब उनकी शादी की बात की तभी वे लाहौर से अपना घर छोड़कर तत्काल कानपुर चले गए। वहीं उनका परिचय चन्द्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, जयदेव कपूर व कुन्दनलाल से हुआ। “हिन्दुस्तानी-समाजवादी-प्रजातंत्र सेना” नामक क्रांतिकारियों के इस संगठन में वे शामिल हो गए। 8 सितम्बर, 1928 को सारे देश के युवा क्रांतिकारी राजगुरु, भगतसिंह आदि फिरोजशाह कोटला मैदान में मिले और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में भारत को स्वतंत्रता दिलाने के उद्देश्य से देशभर में क्रांति की लहर जागृत करने का कार्य प्रारंभ हुआ।
30 अक्टूबर, 1928 को जब साइमन कमीशन भारत में फैली अशान्ति की जाँच करने आया, तो उसके विरोध में काले झंडों का प्रदर्शन किया गया। निहत्थे लोगों पर पुलिस ने खूब लाठियां बरसाईं। लाला लाजपत राय ने अपनी छाती पर लाठियों के वार सहे और 17 नवम्बर को उनका देहान्त हो गया। चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में भगतसिंह और राजगुरु ने उक्त घटना के जिम्मेदार पुलिस अफसर सैंडर्स की उस समय गोली मारकर उसका बदला लिया।
भगतसिंह और उनके साथियों ने निश्चित किया कि वीरतापूर्ण व साहसी आत्म बलिदान के कार्यों द्वारा ही जनता को ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध जागृत किया जा सकता है और इसी योजना के अंतर्गत “केन्द्रीय कार्यकारिणी सभा” में जब “पब्लिक सेफ्टी बिल” पर वाद-विवाद चल रहा था, तो भगतसिंह अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ विदेशी वेशभूषा में अन्दर बम, पिस्तौल और पर्चों आदि को छुपाकर दर्शक गैलरी में जाकर बैठ गए। जैसे ही बिल रखा जाने लगा इन वीर युवाओं ने विधानसभा के फर्श पर बम फेंके और पिस्तौल से कुछ गोलियां हवा में दागीं, तत्पश्चात हाथ से लिखे 'बम का दर्शन' की प्रतियां हॉल में फेंकनी शुरू कर दीं। सम्पूर्ण सभागृह इन जवानों की क्रांति के जय-जयकार से गूंज उठा। भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त का मुख्य लक्ष्य था आत्मबलिदान। इसलिए गोलियां दागने के बाद उन्होंने अपनी पिस्तौल फेंक दी और तब तक वही खड़े रहे जब तक उन्हें गिरफ्तार नहीं कर लिया गया।
सैंडर्स की हत्या, विधानसभा में बम फेंकने का दोषी और बम बनाने का आरोप लगाकर भगतसिंह सहित लगभग 52 क्रांतिकारियों को जेल में डाल दिया गया। जेल में कैदियों के साथ क्रूर व्यवहार किया जाता था। इसके विरोध में क्रांतिकारियों ने उपवास किया। लगातार 65 दिन तक उपवास करने वाले भगतसिंह को अनेक प्रकार की यातनाएं दी गईं। साम-दाम-दण्ड-भेद सारे प्रयत्न विफल रहे। सारे देश में भगतसिंह की चर्चा होने लगी। जन-जन में क्रांति की भावना जाग उठी और लोगों ने इन क्रांतिकारियों के विरुद्ध गवाही देने से इंकार कर दिया। इस बाधा को पार करने के लिए अंग्रेज सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया। जिसमें लाहौर षड्यंत्र केस के कैदियों पर मुकदमा चलाने के लिए एक विशेष अदालत का प्रबंध किया गया। जिसके अंतर्गत कोई भी न्यायिक तरीका उनके कार्यों में बाधा नहीं डाल सकता था और जिसके द्वारा दिए गए फैसले की कोई अपील भी नहीं हो सकती थी। इस अदालत ने भगत सिंह और उनके साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुना दी। फांसी की सजा मिलने पर महान क्रांतिकारी अशफ़ाक उल्ला खां की यह पंक्ति को उद्घोष करते हुए वे कहते : -
“हे मातृभू तुम्हारी सेवा किया करूंगा,
फांसी मिले मुझे या हो उम्र कैद मेरी,
बेड़ी बजा-बजाकर तेरा भजन करूंगा।।”
मस्ती में जीनेवाले इन तीनों क्रांतिकारियों को केवल इस बात का दुख था कि वे अपने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए कुछ अधिक नहीं कर पाए। पर फांसी वाले दिन "मेरा रंग दे बसंती चोला" यह प्रिय गीत गाते हुए हंसते-हंसते वे राष्ट्र की बलिवेदी पर अपनेआप को अर्पित कर दिया। सचमुच ये क्रन्तिकारी सिरफिरे ही थे। सांसरिक मोह, व्यक्तिगत सुख, सारी इच्छाओं को जिन्होंने ठोकर मारकर उड़ा दिया और राष्ट्र की बलिवेदी पर अपना तन-मन-धन, घर-परिवार सर्वस्व लुटा दिया। उनके इस राष्ट्रभक्ति को भला हमारी छोटी बुद्धि क्या समझ पाएगी?
भगत सिंह क्या नास्तिक थे ?
कई तथाकथित बुद्धिजीवी लोग भगतसिंह सहित अनेक क्रांतिकारियों को नास्तिक कहते थे। पर वे लोग इस बात को भूल जाते हैं कि इन क्रांतिकारियों की आस्था भारतमाता में थी। उन्होंने किसी देवी-देवता की भले ही पूजा-अर्चना नहीं की हो, परंतु दुर्गा स्वरूपा भारतमाता के लिए उन्होंने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। स्वामी विवेकानन्द ने 1897 को चेन्नई में अपने भाषण में कहा था, “आनेवाले पचास वर्षों के लिए अपने सभी देवी-देवताओं को उठाकर एक ओर रख दो, और यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही एकमात्र हमारी आराध्य बन जाए। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है। सर्वत्र् उसके हाथ हैं, सर्वत्र् उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं।”
स्वामीजी के इस सन्देश को अपने जीवन में कार्यान्वित इन क्रांतिकारियों ने किया। क्रांतिकारियों का आन्दोलन भले ही रुसी क्रांति से प्रेरित हो पर इन भारतमाता के पुजारियों के जागृत देवता भारतवासी थे। वे उनके सुख-दुख को देखकर दुखी होते और देश की दुर्दशा को देखकर ही तो उन्होंने अपनी जवानी देशहित में अर्पित की।
हमें भी भारतभक्त भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की भांति कार्य करना होगा। केवल व्यक्तिगत सुख के लिए पढ़ाई और कमाई करने वाले स्वार्थी व्यक्ति बनने से अच्छा तो क्रांतिकारियों की तरह त्याग व सेवा की वृत्ति धारण करनेवाला पागल बनना ज्यादा श्रेष्ठ है। महाविद्यालय के प्राध्यापक व युवाओं ने मिलकर अपने महाविद्यालयों में ऐसे राष्ट्रभक्तों की टोली का निर्माण करना चाहिए। महिलाएं अपने घर व कालोनियों में संस्कारमय वातावरण का निर्माण कर सकती हैं। आज जब भारत की ओर सारी दुनिया बड़ी आशा की दृष्टि से देख रहा है तब अपने देश को महान क्रांतिकारियों की तरह राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत युवाओं की आवश्यकता है।
“भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु के बलिदान दिवस पर उन्हें शत-शत नमन।”