स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द                        अखिल मानव की कल्याण कामना से, महान आदर्श को अपने जीवन में मूर्त रूप बनाकर अवतीर्ण होने वाले युग पुरुष स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ था। उनका जन्म कलकत्ता नगरी के उत्तर भाग में सिमुलिया शिमला स्ट्रीट में विक्रम सम्वत् 1920 की मकर संक्रांति अर्थात ईसवी सन् 1863 की बारह जनवरी को ठीक 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।                                                                  इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था। उनके दादा दर्गाचरण दत्त ने युवावस्था में ही वीतराग होकर संन्यास ग्रहण कर लिया था। विश्वनाथ दत्त एक प्रतिभाशाली वकील होने के साथ ही साहित्य और दर्शन के गहरे अध्येता थे। नरेन्द्र दत्त की माता भुवनेश्वरी देवी एक प्राचीन-पंथी हिन्दू महिला थीं। उनके तेजस्वी चरित्र का नरेन्द्र पर गहरा प्रभाव पड़ा था। भगवान शंकर के समान तेजस्वी पुत्र की कामना करती हुई वह सदैव शिर्वाचन में संलग्न रहती थीं। नरेन्द्र दत्त के जन्म के पूर्व स्वप्न में उन्हें कैलाशपति भगवान शंकर ने दर्शन देकर अपने समान ही तेजस्वी लोक कल्याण में रत रहने वाला पुत्र देने का वरदान दिया था।                                           नरेन्द्र दत्त बचपन में बड़े ही नटखट एवं चंचल थे। उनके विचित्र आचरण से कभी-कभी घर के सभी लोग परेशान हो जाते तब माता भुवनेश्वरी शिव-शिव का जाप करके उनके सिर पर जल डाल देती थीं, तो वे चुपचाप शान्त हो जाया करते थे। उन्हें माँ के मुँह से रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनना बड़ा पसन्द था                                कल बडा होने पर उन्हें ध्यान लगाने का अभ्यास स्वतः होने लगा। ध्यानावस्था में दोनों भौंहों के मध्य एक गोलाकार पिण्ड का दर्शन करने लगे थे। __पाँच वर्ष की आयु होने पर उनका अक्षराराम्भ संस्कार सम्पन्न हुआ और उन्हें मेट्रीपोलिटन इंस्टीट्यूट में प्रवेश दिलाया गया। चौदह वर्ष की आयु पर उनको पेट की बिमारी हुई अतः जलवायु परिवर्तन के लिए वे 1877 ई. में रायपुर (म.प्र.) में आए और लगभग दो वर्ष यहाँ रहे। नागपुर से रायपर तक उनको बैलगाडी से यात्रा करनी पड़ी। पन्द्रह दिनों की इस यात्रा को उनके किशोर मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। रायपुर में स्कूल में स्थान न था अत: पिता विश्वनाथ ने उन्हें घर पर ही शिक्षा दी। दो वर्ष रायपुर प्रवास के उपरान्त नरेन्द्र ने कलकत्ता आकर प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। नरेन्द्रनाथ के जन्म से पूर्व के समय बंगाल में समाज सुधार का आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था। राजा राममोहन राय, केशवचन्द सेन तथा ईश्वरचन्द विद्यासागर जैसे मनीषियों ने हिन्दू समाज को कुरीतियों तथा कुप्रभावों से विमुक्त करने का बीड़ा उठाया था। इसी समय रामकृष्ण परमहंसदेव का आविर्भाव हुआ1879 ई. में नरेन्द्रनाथ ने प्रवेशिका परीक्षा पास कर कालेज में प्रवेश लिया। 1881 में सुरेन्द्र नाथ मिश्र के घर पर नरेन्द्र नाथ पहली बार रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आए। इस युवक में अपने मनोवांछित शिष्य को देखकर ही वे उसके भविष्य के विषय में सब कुछ जान गए। उन्होंने नरेन्द्र नाथ से दक्षिणेश्वर आने का अनुरोध किया। नरेन्द्र नाथ दक्षिणेश्वर आने लगे और धीरे-धीरे परमहंस के सानिध्य में उनका रूपान्तरण होने लगा। प्रारम्भ में वे रामकृष्ण को ईश्वरवादी पुरुष के रूप में मानने को तैयार न थे पर धीरे-धीरे उनका विश्वास जमता गया। रामकृष्ण जी समझ गए थे कि नरेन्द्र नाथ की देह में एक विशुद्ध चित्त साधक की आत्मा निवास कर रही है अतः उन्होंने इस युवक पर अपने अहेतुक प्रेम की अजस्र वर्षा कर, उन्हें उच्चतम आध्यात्मिक अनुभूति के पथ में परिचालित कर लिया।        ई. 1884 में जब नरेन्द्र अपनी बी.ए. की परीक्षा की तैयारी में व्यस्त थे तभी उनके परिवार पर विपत्ति के मेघ छा गए। अचानक ही इनके पिता का देहावसान हो गया थातभी 1885 ई. में रामकृष्ण गले के कैंसर रोग से पीडित हुए। नरेन्द्र नाथ ने अनन्य चित्त से उनकी सेवा की। इससे प्रसन्न होकर रामकृष्ण ने उन्हें संन्यास की दीक्षा दी। संन्यास ग्रहण के पश्चात् नरेन्द्र नाथ को अब स्वामी विवेकानन्द का नया नाम मिला। गुरु ने शक्तिपात कर अपनी सम्पूर्ण शक्तियाँ अपने नवसंन्यासी शिष्य को सौंप दी ताकि वह विश्व कल्याण कर भारत का नाम गौरवान्वित कर सके। __1886 इ. का 15 अगस्त मध्य रात्रि के बाद अर्थात 16 अगस्त को श्री रामकष्ण देव ने महासमाधि ले ली। अपने सभी शिष्यों की देख-रेख करने तथा उनका ब्रह्मरूप की ओर प्रेरित करने का दायित्व रामकष्ण परमहंस विवेकानन्द का हा साप गए था सभी गुरु भाइयों के साथ वे वराहनगर मठ में रहने लगे।              1888 के पहले भाग में विवेकानन्द तीर्थाटन की इच्छा से पहली बार वराहनगर मठ से बाहर निकले। काशी में उन्होंने तैलंगस्वामी तथा भास्करानन्द जी के दर्शन किए। काशी में उनको अनुभूति हुई कि संसार में धर्म प्रचार कर लोक कल्याण के लिए सभी गुरु भाइयों को प्रचार कार्य के लिए यात्राएँ करनी चाहिए। वे स्वंय भी काशी, प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन आदि तीर्थों का भ्रमण करते हुए गोरखपुर में पहुँचेइस यात्रा में उन्होंने अनुभव किया कि लोगों में धर्म के प्रति अनुराग की कमी नहीं है पर समाज जीवन में स्वाभाविक गतिशीलता नहीं है। गोरखपुर में उन्हें पवहारी बाबा का सानिध्य प्राप्त हुआअनेक नगरों, ग्रामों तथा तीर्थों का भ्रमण करते हुए स्वामी जी एक दिन कन्याकुमारी पहुँचे। यहाँ श्री मन्दिर के पास परस्तरासन में बैठकर उन्हें भारतमाता के भावरूप में दर्शन हुए और उस दिन से उन्होंने भारतमाता के पुरातन गौरव को पुनर्प्रतिष्ठित करने का संकल्प लिया।                                                      __कुछ दिनों बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो नगर में एक विराट धर्मसभा का आयोजन हुआ। स्वामी जी के कुछ उत्साही मद्रासी शिष्यों ने उन्हें हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में, इस धर्मसभा में भेजने का संकल्प किया। माँ शारदा देवी की आज्ञा से स्वामी जी ने 31 मई 1893 को अमेरिका के लिए प्रस्थान कियाजहाज यात्रा में अमेरिका की एक वृद्ध महिला उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई। उन्होंने ही अमेरिका में उनके लिए निवास एवं भोजन की व्यवस्था की। 11 सितम्बर 1893 ई. को स्वामी जी ने इस विराट धर्मसभा में हिन्दत्व की महानता को प्रतिस्थापित कर पूरे विश्व को चौंका दिया। उन्होंने उद्घोष किया कि मुझको ऐसे धर्मावलम्बी होने का गौरव है जिसने संसार को 'सहिष्णुता' तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है।                                उनके अपनत्व पूर्ण व्याख्यानों से प्रभावित होकर पूरा अमेरिका ही उनकी प्रशंसा से मुखरित हो उठा। शिकागो से स्वामी जी न्यूयार्क आए। यहाँ उन्होंने ज्ञानयोग और राजयोग पर अनेक भाषण दिए। __ उनकी तेजस्विता से प्रभावित होकर हजारों अमेरिकी उनके शिष्य हो गएन्यूयार्क से स्वामी जी को वेदान्त की अनुरागिनी हेनरीएटा मुलर द्वारा यूरोप बुलवाया गया। यहाँ लन्दन और पैरिस में उनके दर्शन से प्रभावित होकर हजारों लोगों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। 28 मई को उन्होंने विश्वविख्यात प्रोफेसर मैक्समूलर से भेंट की और शीघ्र ही वे गहरी मित्रता के सूत्र में बंध गए। इंग्लैण्ड में कुमारी मूलर, कुमारी नोवल, श्री गुडविन तथा श्री स्टर्डी उनके प्रमुख शिष्य थे। इनमें कुमारी मार्गरेट नोवल कालान्तर में भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुईस्वामी जी ने विदेशों में हिन्दू धर्म की विजय पताका फहराने के बाद भारतभूमि में पदार्पण किया।                                        4 जुलाई 1902 को इस महान तपस्वी ने अपनी इहलीला समाप्त की। स्वामी विवेकानन्द का जीवन प्रत्येक भारतीय के लिए अनुकरणीय है। उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान अनेक पुस्तकों के रूप में संग्रहीत हैं जिनमें प्रमुख ग्रंथ हैं राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग। संन्यास के उच्चतम आदर्श का निर्वाह करते हुए इस प्रखर राष्ट्रभक्त का आविर्भाव 19वीं शताब्दी की एक अभूतपूर्व घटना है। मृतप्राय हिन्दू समाज को उन्होंने नई संजीवनी देकर पुनर्जीवन प्रदान किया