राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बिहार के पहले स्वयं सेवक नऊ दधीचि नाना भागव
बिहार के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक नव दधीचि नाना भागव



 




 



 

 


बिहार के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक नव दधीचि नाना भागवत


बिहार में पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और फिर विश्व हिन्दू परिषद के कार्य विस्तार में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले दत्तात्रेय बालकृष्ण (नाना) भागवत का जन्म वर्धा (महाराष्ट्र) में चार दिसम्बर, 1923 को हुआ था। छात्र जीवन में ही ये संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आ गये। तब से ही संघ कार्य को इन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।


एक बार ये कुछ मित्रों के साथ डा. जी से मिलने गये। वहाँ जब चाय की बात चली, तो इन्होंने कहा कि मैं चाय नहीं पीता हूँ। इस पर डा. हेडगेवार ने समझाया कि जिससे मिलने जाते हैं, वहाँ चाय के बहाने कुछ देर बैठना हो जाता है। फिर इस बीच संघ की बात चल पड़ती है। अतः संगठन करने वालों को चाय न पीने का दुराग्रह नहीं करना चाहिए।


1944 में बी.एस-सी. की शिक्षा पूर्ण कर नाना भागवत प्रचारक बने। तब तक वे संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण भी कर चुके थे। श्री गुरुजी ने उन्हें  सर्वप्रथम कर्नाटक भेजा। दो वर्ष वहाँ रहने के बाद 1946 में उनकी योजना बिहार के लिए हुई। इसके बाद लगभग 40 वर्ष वे बिहार में ही रहे।


बिहार में छपरा जिला प्रचारक के रूप में उन्होंने काम प्रारम्भ किया। भिन्न भाषा, खानपान और परिवेश के बीच काम करना कठिन था; पर नाना भागवत भी जीवट के व्यक्ति थे। जहाँ भी वे रहे, वहाँ संघ की भरपूर फसल उन्होंने उगायी। बिहार में अनेक स्थानों पर वे जिला एवं विभाग प्रचारक रहे।


1975 में जब इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल थोपकर संघ पर प्रतिबन्ध लगाया, तब वे दरभंगा में विभाग प्रचारक थे। 1977 में आपातकाल तथा प्रतिबन्ध की समाप्ति के बाद 'विश्व हिन्दू परिषद' के कार्य के महत्व को देखते हुए उन्हें बिहार का संगठन मन्त्री बनाया गया। नाना भागवत ने बिहार का सघन प्रवास कर विश्व हिन्दू परिषद की इकाइयाँ खड़ी कीं।


उनके संगठन कौशल को देखकर 1980 में उन्हें माधवराव देशमुख के साथ बिहार और उत्तर प्रदेश का सह क्षेत्रीय संगठन मन्त्री बनाया गया। कुछ समय बाद उनका कार्यक्षेत्र बंगाल, उड़ीसा और समस्त पूर्वोत्तर भारत तक बढ़ा दिया गया। इस क्षेत्र में जहां एक ओर संघ का काम काफी कम था, वहां दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां जोरों पर थीं। बंगलादेश से हो रही घुसपैठ से भी यही क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित था। ऐसे में नाना ने अपने परिश्रम से सर्वत्र विश्व हिन्दू परिषद का काम खड़ा किया।


किसी भी काम को बहुत व्यवस्थित ढंग से करना नाना भागवत के स्वभाव में था। 1985-86 में उन्हें वि.हि.प. के केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व देकर दिल्ली केन्द्रीय कार्यालय पर बुला लिया गया। उन्होंने पंजाब में आतंक के दिनों में निकाली गयी 'सद्भावना यात्रा' का सुन्दर समायोजन किया।


इससे पूर्व 'प्रथम एकात्मता यात्रा' में नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर से चली यात्रा के संयोजक भी वही थे। इस यात्रा से ही विश्व हिन्दू परिषद का देशव्यापी संजाल बना और श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन की भूमिका बनी। आगे चलकर जब अयोध्या में श्रीराम मन्दिर निर्माण का आन्दोलन चला, तो 'शिलापूजन कार्यक्रम' की पूरी व्यवस्था उन्होंने ही सँभाली।


नाना भागवत संघ के जीवनव्रती प्रचारक थे। उनके पास निजी सम्पत्ति तो कुछ थी नहीं; पर 16 जून, 2002 को उन्होंने अपने शरीर को भी चिकित्सा विज्ञान के छात्रों को देने की घोषणा की। देहदान के ऐसे उदाहरण देखने में कम ही मिलते हैं। 19 दिसम्बर, 2006 को दिल्ली में ही उनका देहान्त हुआ। उनकी इच्छानुसार उनका पार्थिव शरीर चिकित्सा महाविद्यालय को दे दिया गया।


केवल जीवन में ही नहीं, तो जीवन के बाद भी समाज के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाले ऐसे नवदधीचि स्तुत्य हैं।