स्वामी जी ने कहा अमेरिकावासी बहनों और भाईयों

        स्वामी विवेकानन्द जी              बंगाल के कलकत्ता नगर के उत्तर भाग में सिमुलिया मोहल्ले में गौर मोहन मुखर्जी स्टीट पर निवास करने वाले दुर्गाचरण के पुत्र विश्वनाथदत्त और भुवनेश्वरी देवी के यहाँ भगवान विश्वेश्वर के आशीर्वाद से १२ जनवरी १८६३ पौष मकर संक्रान्ति सप्तमी को सूर्योदय से मिनिट पूर्व ६ बजकर ३३ मिनिट और ३३ सेकेण्ड पर पुत्र का जन्म हुआ। माता ने पुत्र का नाम विश्वेश्वर रखा। घर में बिले कहने लगेअन्नप्राशन के समय इनका दूसरा नाम 'नरेन्द्रनाथ' रखा गया जो प्रचलित हुआ। इनसे दो बड़ी बहिनें भी थीं। बचपन में जब ये भारी ऊधम मचाते, चुप होने के लिए माता शिव-शिव कहकर जब इनके ऊपर जल छोड़तीं तब वो चुप हो जाते। माता बचपन में रामायण, महाभारत की कहानियाँ सुनाती। बचपन में ही वह शिव की पूजा में ध्यानस्थ हो जाते थे। ६ वर्ष की आयु में पढ़ने को विद्यालय भेजा। तरहतरह खेलों का आविष्कार कर वीरतापूर्ण खेल खेला करते थे। १५ वर्ष की आयु में ही पिताजी के साथ बैलगाड़ी में बैठकर रायपुर (छत्तीसगढ़) जाते समय दो पर्वतों को आमने - सामने देख पहली आध्यात्मिक अनुभूति में वह बाह्य ज्ञान शून्य हो गये थे। १८७६ में दसवीं प्रथम श्रेणी में पास कर कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश ले, एक वर्ष बाद मिशनरी के एसेम्बलीज इन्स्टीट्यूशन में प्रवेश लिया। यहीं पर अंग्रेजी के प्राध्यापक 'हेस्टी' साहब के मुख से समाधि प्राप्तकर्ता रामकृष्ण का नाम सुना। संगीत में रुचि होने से वाद्य और स्वर संगीत दोनों ही सीखे। यहीं रहकर पाश्चात्य तर्कशास्त्र और दर्शन का अध्ययन कर ग्रीन द्वारा लिखित अंग्रेजी इतिहास को सिर्फ तीन दिन में ही पढ़ डाला। बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद वह 'ब्रह्मसमाज' से जुड़ गये। पिताजी ने नरेन्द्र से विवाह का अनुरोध किया। एक संयोग बना, एक धनी व्यक्ति ने आ नरेन्द्र को विवाह कर लेने पर भारतीय राजकीय सेवा (I.C.S.) की इंग्लैण्ड में पढ़ाई का पूरा खर्च देने का प्रस्ताव रखा जिसे नरेन्द्र ने ठुकरा दियाईश्वरोपलब्धि यही जीवन का लक्ष्य है मानकर ब्रह्मसमाज के देवेन्द्र नाथ के पास जा प्रश्न पूछा कि “क्या आपने ईश्वर का दर्शन किया है ?" एक दिन प्रो. हेस्टी ने दक्षिणेश्वर में निवासी रामकृष्ण का पता बताया तभी श्री रामचन्द्र राम बाबू ने भी ऐसा ही कहा। नवम्बर १९९१ म भक्त सुरेन्द्रनाथ के घर जहाँ इन्हें गीत गाने बुलाया गया था रामकृष्ण से भेंट हो गयी।                                                                                  उन्होंने दक्षिणेश्वर आने का निमंत्रण दिया। रामकृष्ण के सम्मुख दक्षिणेश्वर जा गीत गाया “मन चल निज निकेतन"? सुन बरामदे में ले जा कर नरेन्द्र से कहा - "अहा! तू इतने दिनों बाद आया तू बड़ा निर्मम है, इसीलिए तो इतनी प्रतीक्षा करवाई।" पुनः कमरे में लौटने पर पूछा "क्या आपने ईश्वर को देखा है ?" हाँ, मैने ईश्वर का दर्शन किया है। ठीक जैसे तुम्हें देख रहा हूँ ठीक वैसे ही बल्कि और स्पष्ट रूप से। तुम्हें भी दर्शन करा सकता हूँ। जीवन में पहला इतना स्पष्ट प्रश्न का उत्तर मिला। घर की गरीबी को दूर करने के लिए कहने पर रामकृष्ण ने कहा, जाओ माँ से स्वयं प्रार्थना करो। माँ के सामने जाने पर माँगने लगे, माँ मुझे ज्ञान दो, वैराग्य दो, भक्ति दो। ठाकुर के द्वारा तीन बार वापस भेजने पर भी वह धन नहीं माँग पाये। रामकृष्ण ने एक दिन कहा, मेरे पास बहुत सिद्धियाँ हैं जिनका मेरे लिए कोई उपयोग नहीं है। क्या तुम लोगे ? नरेन्द्र ने कहा, क्या वे परमात्म दर्शन करा देंगी। नहीं, तो मुझे नहीं चाहिए। सभी आध्यात्मिक परीक्षाओं में पास होने वाले नरेन्द्र नाथ को रामकृष्ण ने सारी आध्यात्मिक शक्ति-शक्तिपात द्वारा सौंप कर कुंजी अपने पास यह कहकर रख ली कि तुम्हारा जब अन्त समय आयेगा तब यह तुम्हें प्राप्त हो जायेंगी। रामकृष्ण के चले जाने पर मठ की स्थापना कर देशभर में भ्रमण करने लगे। नरेन्द्र अब संन्यासी बनकर विवेकानंद बन गये। प्रथम यात्रा काशी कर अलवर पहुँचे जहाँ के महाराजा मंगलसिंह मूर्ति पूजा के विरोधी थे। सामने दीवार पर टंगे चित्र पर दीवान को यूँकने के लिए इसलिए कहा कि यह भी मूर्ति की तरह प्राणहीन है। स्वामी ने राजा को सच्चा ज्ञान दे मूर्तिपूजा का औचित्य समझाया। जब आबू में ट्रेन से यात्रा कर रहे थे तो दो अंग्रेज अधिकारी आपस में अंग्रेजी भाषा में स्वामीजी की निंदा कर रहे थे। अगले स्टेशन पर स्वामीजी ने जब वहाँ के अधिकारी से अंग्रेजी में पानी माँगा तो उन अंग्रेजों ने कहा कि अभी तक चुप क्यों थे ? तो स्वामीजी ने कहा “मूखों से मुलाकात का यह पहला अवसर नहीं है।" वे छुआछूत के विरुद्ध थे। वृन्दावन जाते समय जहाँ एक चमार के साथ हुक्का पिया तो पंचम के घर पानी पिया वहीं मोची के घर के अन्न का भोजन किया। उन्हीं दिनों अमेरिका के शिकागो में विश्वधर्म सम्मेलन होने वाला था। वहाँ स्वामी को जाना चाहिए इसको लेकर मैसूर के महाराजा, खेतड़ी के महाराजा, रामनाड के सेतुपति ने तथा मद्रास के भक्तों का भी जाने का निवेदन मान कन्याकुमारी जा समुद्र के शिलाखण्ड पर तैरते हुए पहुँच कर तीन दिन ध्यान साधना कर रामकृष्ण देव का आदेश मान माँ शारदा से अनुमति ले ३१ मई १८६३ को मुम्बई से जहाज द्वारा कोलंबो, सिंगापुर, हाँगकाँग, टोकियो होते हुए शिकागो पहुँचे। ११ सितम्बर १८६३ को आर्ट पैलेस के वृहद् हॉल जिसमें गैलरी सहित सात हजार अमेरिकी प्रतिनिधियों से खचाखच भरा हुआ था। मंच पर रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च अधिकारी कार्डिनलगिबन्स, हिन्दू, जैन, बौद्ध, कनफ्यूशियन, शिन्तो, इस्लाम, पारसी आदि धर्मों के प्रतिनिधियों के बीच डॉ. वैराज द्वारा परिचय कराने  के बाद स्वामीजी ने कहा, "अमेरिकावासी बहनों और भाईयों।" इस सम्बोधन ने ही जादू कर दिया। हजारों लोग खुशी से कुर्सी से उछल कर खड़े हो गये। पूरे दो मिनिट तक तालियाँ ही बजती रहीं। तदुपरान्त बोले “जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।" और दूसरी महत्त्व की बात कही गीता की, “जो कोई मेरी ओर आता है - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ।" इस महासभा में दर्जन भर व्याख्यान दिये इसमें “हिन्दू धर्म पर निबन्ध" सबसे महत्त्वपूर्ण था। समाचार पत्र प्रशंसा में भरे हुए थे। भाषण इतना प्रभावी हो गया कि आगे से उनका उद्बोधन सभा के अंतिम वक्ता के रूप में इसलिए रखा जाने लगा कि जनता आखिर तक सुनने को बैठी रहे। जब रात्रि को होटल में आये तो भारतीय जनता की गरीबी का स्मरण कर फर्श पर लेटकर रोते हुए कहने लगे “माँ मैं उस नाम और यश का क्या करूँ, मेरे भारतवासी मुट्ठी भर अनाज के लिए हाहाकार कर रहे हैं और यहाँ के लोग व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं पर लाखों रूपये व्यय कर रहे हैं।" यूरोप के अन्य देशों की यात्रा में वे इंग्लैण्ड में आये जहाँ मार्गरेट नोबल (भगिनी निवेदिता) से भेंट हुई जो उनकी शिष्या बन गयी। विश्व में रामकृष्ण और माँ जगदम्बा की इच्छा से सनातन धर्म का अटल संदेश देकर स्वामीजी १५ जनवरी १८६७ को कोलंबो पहुँचे जहाँ राजकीय सम्मान हुआ। वहाँ से रामेश्वरम् में शिव के दर्शन कर आह्वान किया “निर्धन, दुर्बल एवं रुग्ण लोग में शिव उपासना करें।" वहाँ के राजा भास्कर सेतुपति ने चालीस फीट ऊँचा विजय स्तम्भ बनवाकर शिलालेख लगवा दिया जो आज भी है। मद्रास में स्वागत में कहा “जब तक भारत में एक भी दुःखी रहेगा, मुझे मुक्ति नहीं चाहिए।" १८६७ में रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर बैलूर के पास निर्माण कर मठ स्थापित किया। “आगामी कुछ वर्षों के लिए हम सारे देवी-देवताओं को भूल जायें। सिर्फ और सिर्फ एक ही देवता हमारे विचार केन्द्र में रहे, वह है हमारी मातृभूमि !! हम जब उसकी पूजा कर लेंगे तभी हम अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने योग्य बनेंगे।" “नर सेवा नारायण सेवा" का संदेश देने वाले स्वामी विवेकानंद वही पुराना गीत “मन चल निज निकेतन" गुनगुनाते हुए ४ जुलाई १६०२ को रात्रि ६.१० मिनिट पर ३६ वर्ष ५ माह २४ दिन जीकर महासमाधि में हमेशा के लिए विलीन हो गये। उनकी इच्छानुसार बिल्व वृक्ष के नीचे ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।