सामाजिक समरसता_एवं हिंदुत्व के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण,

सामाजिक समरसता_एवं हिंदुत्व के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण


संघ के सह सरकार्यवाह डॉ कृष्ण गोपाल जी से सामाजिक समरसता और हिन्दुत्व विषय पर विस्तृत चर्चा हुई। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंशः


 संघ सृष्टि से बाहर 'हिन्दुत्व' शब्द ज्यादा सुनाई देता है जबकि संघ से बाहर 'समरसताशब्द का प्रयोग बहुत कम होता है। आपकी दृष्टि में इन दोनों शब्दों की क्या परिभाषा है?


पिछले लगभग डेढ़ हजार वर्षों से हिन्दू समाज लगातार बाहर से आए आक्रमणकारियों से संघर्षरत रहा है। वे आक्रमणकारी यहां के समाज में विलीन भी हो गए। अनेक बार यहां का समाज पराजित हआ। हारने के कारण से हिन्दू समाज में बहुत तरह की कुरीतियां घर कर गई थीं। उन कुरीतियों में एक वह है जिसके कारण हिन्दू समाज अपने बंधुओं को ही अपने से अलग मानने लगा। इस वजह से वे दूर किए गए बंधु अपने-अपने खोल में सिमटते चले गए और इसलिए पिछले 12, 13, 1,400 वर्षों के अंदर हिन्दू समाज के अंदर अस्पृश्य भाव पैदा हो गया। इससे पहले किसी दर्शन में इसका उल्लेख नहीं मिलता। भगवान बुद्ध के समय यह भाव कहीं नहीं दिखता, उपनिषदों में नहीं दिखता। इसकी उत्पत्ति हई पिछले डेढ़ हजार वर्षों के अंदर। आज हमारा देश स्वतंत्र है, लेकिन स्वतंत्र होने के पहले से ही इस देश में लगातार अस्पृश्यता के विरोध में लोग खड़े होते रहे हैं। हमने प्रयत्नपूर्वक इस समाज के अंदर जो भेदभाव था, छुआछूत थी, उसको न मानने के लिए संघर्ष जारी रखा। वही संघर्ष समरसता लाने का संघर्ष है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रारंभ किया है, ऐसा नहीं है। कबीर को पढ़ें, वे भी वही बात बोलते हैं कि भेदभाव खत्म करो। रैदास भी वही बोलते हैंभेदभाव खत्म करो। गुरुनानक देव जी ने वही बात बोली है-जातिभेद, छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच समाप्त करोजो काम उन्होंने किया वही काम स्वामी विवेकानंद ने किया, वही काम महर्षि दयानंद ने किया, वही काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। अर्थात् पिछले हजार-डेढ़ हजार वर्षों से समाज में आई करीतियों को दूर करके एक समरसतापूर्ण जीवन, सबके प्रति आत्मीयता रखने वाला जीवन हमारे समाज में फिर से दिखाई दे। हर प्रकार का जातिभेद समाप्त हो जाए। एक रस, एकात्म। आत्मीयता के बोध वाला। उसी को एक सरल-सा शब्द दिया है-समरस जीवन। इसलिए इस शब्द का प्रयोग रा.स्व.संघ ने किया है। संघ ने आत्मीयता के आधार पर सारे समाज को अपना माना है। इसलिए संघ समरसता का प्रयोग अधिक करता है। हम किसी भी जातिगत भेदभाव के आधार पर किए व्यवहार को कभी भी स्वीकार नहीं करते। इसके कारण लोगों को थोड़ा अजीब-सा लगता होगा। अब दूसरे शब्द यानी हिन्दुत्व की चर्चा करें तो, हजारों वर्षों से समय-समय पर सनातन परंपरा से जो समाज चला आ रहा है, उसके शब्द बदलते चले गए। कभी यहां के लोगों को आर्य कहा, कभी यहां के लोगों को सनातनधर्मी कहा गया। लेकिन पिछले 1,200 वर्षों में यहां के सारे ।। समाज को हिन्दू शब्द से संबोधित करने का स्वभाव बन गया है। यह बात भी ठीक है कि यहां के लोग अपना कोई विशेष नाम प्रयोग नहीं करते थे। इस्लाम के आक्रमण के बाद, आक्रमणकारी और दूसरे, ऐसा विभाजन हआ। हिन्दू समुदाय कहीं भुला दिया गया। लेकिन जो समाज सनातन परंपरा को मानता है, हमारे अनुसार वह सारा समाज हिन्दू है। जो सनातन परंपरा के अच्छे आदर्श, सिद्धांतों को मानता है, उस सिद्धांत को, उस दर्शन को, उस व्यवहार को हम लोग हिन्दुत्व के नाम से जानते हैं। इस देश की धरती पर पैदा हए सभी दर्शन, सभी विचार, जो सबको एक मानते हैं, सबको समान मानते हैं, सम्मान करते हैं और सबकी मंगलकामना करते है, इस समन्वित भाव को हम लोग हिन्दुत्व मानते हैं। इन दोनों शब्दों के अंग्रेजी में समानार्थक नहीं मिलते। हिंदुत्व को हिन्दुइज्म लिखते हैं। क्या हिन्दुइज्म और हिन्दुत्व एक ही हैं? येइज्म शब्द पाश्चात्य जगत से आया है। इज्म का अर्थ है कि कोई व्यक्ति कोई सिद्धांत देता है, कोई विचार देता है, वह एक खांचे में आ जाता है, उसके बाहर जाना तो संभव नहीं होता। इसलिए जो हम हिन्दुत्व बोलते हैं इसका कोई खांचा नहीं है, इसकी कोई आउटलाइन बाउंड्री नहीं है, क्योंकि इसमें हर दिन कोई भी व्यक्ति एक नया विचार देता है। इसमें एक नया एडिशन कर देता है। इसलिए सनातन परंपरा का एक प्रवाह है। यह प्रवाह निरंतर चलता है, निरंतर नई-नई बातें जुड़ती हैं, नई-नई खोज होती और ये नई खोजों को प्रोत्साहित करता है, नये विचार को स्वीकार करता है, उनका सम्मान करता है। इसी निरंतर प्रवाह को हम लोग कहते हैं हिन्दुत्व। हिन्दुनेस या हिन्दुत्व न कि इज्म, इज्म कहते ही एक वाद हो जाता है। वाद होता है तो एक सीमा बन जाती है तो एक परिभाषा निश्चित हो जाती है, जिसके अंदर रहना होता है। मार्क्सवाद या समाजवाद या पूंजीवाद, ये सब इज्म हैं। इसी प्रकार मानो कोई बोल देता है क्रिश्चियनिज्म, इस्लामिज्म, तो इसमें एक निश्चित विचार है, उसको बदला नहीं जा सकता। उसमें एडिशन नहीं कर सकते। उसकी आलोचना भी नहीं कर सकते। लेकिन हिन्दुत्व इन सबकी छूट देता है, इसकी अनुमति देता है। इसलिए गांधीजी कहते हैं-सत्य की निरंतर खोज का नाम हिन्दुत्व है। इस खोज को विराम नहीं लगाना है। इसी खोज को महर्षि दयानंद अच्छी प्रकार से समझाते हैं, उसी सत्य को स्वामी विवेकानंद अलग तरह से समझाते हैं, आदि शंकराचार्य समझाते हैं, उपनिषद् समझाते हैं, भगवान बुद्ध समझाते हैं, उसी सत्य को महावीर समझाते हैं। हजारों लोग अपने-अपने प्रकार से उस सत्य को समझाते हैं। ये जो निरंतरता है, ये हमेशा नई, अच्छी चीजों को जोड़ते चलने का सनातन प्रवाह है, इसी को हिन्दुत्व कहते हैं। हिन्दुत्व एक व्यक्ति द्वारा शुरू किया गया नहीं है, एक पुस्तक को आधार मानकर नहीं चल रहा है। इसकी एक निश्चित परिभाषा नहीं हैहर दिन मानव का कल्याण, संपूर्ण सृष्टि का कल्याण, यही आधार है। इस पर जो विचार आएगा वह हिन्दुत्व का ही प्रकाश करेगा। इसलिए हमने कहा, हिन्दुत्व एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का नाम है। निरंतर चलने वाले प्रवाह का नाम हिन्दुत्व है।