गंगाजी


सूर्यवंश के प्रतापी सम्राट- अयोध्या नरेश राजा सगर को महर्षि भृगु के आशीर्वाद से विदर्भराजकुमारी केशिनी से असमंज और गरुडजी की बहिन सुमति से साठ हजार पुत्र पैदा हुए।


सभी पुत्र अतुल बलशाली थे। राजासगर के अश्वमेध यज्ञ के श्यामकर्ण घोडे को इन्द्र ने राक्षसरूप धारण कर चुरा लिया और रसातल में तपस्यारत कपिलमुनि के आश्रम पर बांध दिया। घोडे की खोज में साठ हजार पुत्रों ने पृथ्वी के भीतर रसातल में जा घोडे को वहाँ देखा।


मुनि को ही चोर समझ भला-बुरा कहाकपिलमुनि द्वारा रोष भरी हुँकार भरने से वे सब वहीं जलकर राख का ढेर हो गये। पश्चात् अंशुमान् वहाँ से घोडा वापस लेकर जा रहे थे तभी गरुडजी ने कहा गंगाजी के जल से जलांजलि देने से तुम्हारे पुरखों की गति होगी। यज्ञ पूर्ण हुआ।


सगर के स्वर्गवासी होने पर राजा बने अंशुमान् ने अपने पुत्र दिलीप को राज्य देकर गंगाजी को भूलोक पर लाने के लिए "द्वात्रिंशच्छतसाहस्त्रं वर्षाणि" बत्तीस हजार वर्ष, बाद में दिलीप ने भी "त्रिंशद्वर्षसहस्त्राणिं" तीस हजार वर्ष तक तप किया पर गंगाजी नहीं आयीं।


दिलीप पुत्र राजर्षि भगीरथ "भगीरथस्तु राजर्षि" ने राज्य का भार मंत्रियों के ऊपर छोडकर गोकर्ण तीर्थ में “तस्य वर्षसहस्त्राणि घोरे तपसि तिष्ठतः" एक हजार वर्ष तप किया। प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से भगीरथ ने दो वर माँगे-एक प्रपितामहों के उद्धार के लिए स्वर्ग से पतित पावनी गंगाजी भूलोक आवें और दूसरा सूर्यवंश को चलाने वाला प्रतापी पुत्र ।


वाल्मीकीय रामायण के अनुसार ब्रह्मा जी ने कहा "इयं हेमवती ज्येष्ठ गंगा हिमवती सुताः” बा०का० ४२/२३ भगीरथ! हिमालय की ज्येष्ठपुत्री हेमवती गंगा अवश्य पृथ्वी पर आयेगी लेकिन उन्हें धारण करने के लिए शिवजी की प्रार्थना करें। श्रीमद्भागवत के अनुसार भगवान् वामन ने तीन पग पृथ्वी नापने के लिए अपना बायाँ पैर बढ़ाया तब ब्रह्माण्ड कटाह का ऊपर का भाग फट गया।


ब्रह्मा जी ने विष्णु चरण को कमण्डलु में धो लिया। ५/१७/१ अस्तु तब भगीरथ न “सो ड्गुष्ठाग्रनिपीडिताम्" बाका० ४३/१ अंगूठे के अग्रभाग पर खडे हो एक वर्ष के तप द्वारा शिव को प्रसन्न किया। गंगा के अहंकार को दूर करने शिव ने जटाओं में उलझा दिया पर निवेदन करने पर बिन्दुसरोवर में जाकर छोड़ दिया।


सप्तधाराओं में बह चलने वाली गंगा की तीन-तीन धाराएँ पूर्व और पश्चिम में चली गयीं। एक धारा भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे चली। यज्ञमण्डप को बहाने के कारण राजा जहु ने उन्हें पी लिया। पर निवेदन करने पर “श्रोताभ्यामसृजत प्रभुः" कानों के छिद्रों द्वारा पुनः प्रकट किया।


तभी से गंगा जावी कहलाने लगीं। गंगोत्री से हरिद्वार आयी तो तपरत सप्तर्षियों की इच्छा के अनुरूप वह सप्तधाराओं में विभक्त हो पुनः एक हो गयी। हृषीकेश, हरिद्वार, प्रयाग, वाराणसी होती हुई गंगा को भगीरथ सागर के उस स्थान पर ले गये जहाँ उनके पूर्वजों की भस्म पड़ी हुई थी।


"गंग अवनि थल तीनि बडेरे।। रा० मानस । गंगा के पृथ्वी के ऊपर तीन बडे व प्रमुख स्थान हरिद्वार, प्रयाग व गंगासागर हैं। गंगोत्री से चौदह सौ पचास किलोमीटर चलकर कपिल मुनि के आश्रम पर सागर से मिलती हैं। ब्रह्मा जी ने कहा भगीरथ “इयं च दुहिता ज्येष्ठा" बा०का० ४४/५ ये गंगा तुम्हारी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेगी और “गंगा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च" त्रिपथगा, दिव्या और भागीरथी इन तीन नामों से प्रसिद्ध होगी।


कभी न दूषित होने वाले गंगा के जल में जब तक मनुष्य की हड्डी पड़ी रहती हैं तब तक वह स्वर्ग में वास करता है। “दरस परसु अरु मज्जन पाना।" हरै पाप कह वेदपुराना।। रामचरित मानस।।।