धर्म की धारा धर्म का स्वरूप क्या है? धर्म का क्या देश-काल के अनुसार बदलता है? ये सवाल हजारों सालों से पूरी दुनिया को परेशान करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति में धर्म पर चिंतन कर सूक्ष्म विवेचन की परंपरा रही है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में लिखते हैं, धारणादधर्ममित्याहु धर्मेण विधृताः प्रजाः यस्यादधारण संयुक्तः स धर्म इति निश्चयः। अर्थात धर्म संपूर्ण जगत को धारण करता है. इसीलिए उसका नाम धर्म हैधर्म ने समस्त प्रजा को धारण कर रखा है। अतः जो धारण से युक्त हो, वही धर्म है। वे कहते हैं, धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम्। __अर्थात संसार में धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। महाभारत में वेद व्यास धर्म का महत्व इस तरह बताते हैं- धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हंतव्यो, मा नो धर्मोहतो वधीत। अर्थात मरा हुआ धर्म हमें मारता है और हमसे रक्षित धर्म ही हमारी रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन नहीं करना चाहिए। दोनों महान विचारकों ने धर्म को ही जीवन का सारतत्व माना। वास्तव में यही सनातन भारतीय चिंतन परंपरा है, जो मानव जीवन के चार पुरुषार्थो में धर्म को पहला स्थान देती है। धर्म ही वह पहली सीढी है, जिसके अगले सोपानों__ अर्थ और काम से होते हुए मानव अपने जीवन के परमलक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है मनुस्मृति में धर्म का स्वरूप उसके दस लक्षणों के माध्यम से बताया गया है - धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिद्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना - ये दस लक्षण हैं धर्म के और जिस मनुष्य में ये लक्षण हों, वही धार्मिक है। मध्यकाल में कई भक्त-संत कवियों ने यही बातें उस समय की बोलचाल की भाषा में समझाई। उस समय धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के आडंबर तथा कुरीतियां प्रचलित हो गई थीं। संत कबीर ने इन आडंबरों का विरोध करते हुए धर्म का वास्तविक अर्थ बताया। उन्होंने कर्मकांड और कुरीतियों में उलझने के बजाय प्राणीमात्र के प्रति दया को ही धर्म का आधार बताते हुए कहा जहां दया तहं धर्म है, जहां लोभ तहं पाप। जहां क्रोध तहंकाल है. जहां क्षमा तहं आप॥ गोस्वामी तुलसीदास ने दूसरों के हित यानी परोपकार को धर्म तथा दूसरों को पीडा यानी परपीडा को अधर्म माना परहित सरिस धर्म नहीं भाई। परपीडा सम नहीं अधमाई॥ गुरु नानकदेव ने जीवन से सच्चा आनंद प्राप्त करने की प्यास को ही धर्म कहा। संत तिरुवल्लवर के शब्दों में, मन को निर्मल रखना ही धर्म है, बाकी सब कोरे आडंबर। समयचक्र चलता रहा। भारत पर आक्रमण होते रहे। ज्ञान के प्रकाश की जगह अज्ञान का अंधकार बढता रहा। फिर भी भारतभूमि पर अनेक चिंतक-विचारक, कवि-लेखक दुनिया का मार्गदर्शन करते रहे। सन 1893 में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में उपस्थित विश्व के सभी धर्मगुरुओं के समक्ष भारतीय संस्कृति की विजय पताका फहराई। उन्होंने बार-बार भारतीय जीवनदृष्टि का मूल आधार धर्म को बताया। उनके शब्दों में हमारे पास एकमात्र सम्मिलन-भूमि है - हमारी पवित्र परंपरा, हमारा धर्म। भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर धार्मिक एकता की ही आवश्यकता है। एशिया में और विशेषत- भारत में जाति, भाषा, समाज संबंधी सभी बाधाएं धर्म की इस एकीकरण शक्ति के सामने उड जाती हैं। धर्म ही भारतीय जीवन का मूल मंत्र है। हमारा धर्म ही हमारे तेज, हमारे बल, यहां तक कि हमारे जीवन की भी मूल भित्ति है। ..मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूं, जो सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो; इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहेंगे। ..हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है। देश के दरिद्रनारायण की सेवा ही सच्चा धर्म है। क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना है, भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना है। इस प्रकार स्वामी विवेकानंद ने धर्म को सामाजिक विकास तथा मानवमात्र की सेवा से जोडकर उसे नया अर्थ प्रदान किया। महात्मा गांधी ने भी समय-समय पर धर्म की व्याख्या की। उनके अनुसार, धर्म सचमुच बुद्धिग्राह्य नहीं, हृदयग्राह्य है। ..जहां धर्म नहीं, वहां विद्या, लक्ष्मी, स्वास्थ्य आदि का भी अभाव होता है। ..धर्मरहित स्थिति में बिलकल शष्कता होती है. शन्यता होती है। ..धर्म जिंदगी की हर एक सांस के साथ अमल में लाए जाने की चीज है। ..विशाल व्यापक धर्म है ईश्वरत्व के विषय में हमारी अचल श्रद्धा, पुनर्जन्म में अविचल श्रद्धा, सत्य और अहिंसा में हमारी संपूर्ण श्रद्धा। मेरा विश्वास है कि बिना धर्म का जीवन बिना सिद्धांत का जीवन होता है और बिना सिद्धांत का जीवन वैसा ही होता है, जैसी कि बिना पतवार की नौका। भारतीय चिंतन, जीवन मूल्यों तथा विचारों के प्रसार में आधुनिक रचनाकारों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। मुंशी प्रेमचंद ने धर्म का वास्तविक अर्थ बताते हए लिखा, धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं कवि-नाटककार जयशंकर प्रसाद के शब्दों में, धर्म की पवित्रता शरतकालीन जलस्रोतों के सदृश हो, उसकी उद्भवलता शारदीय गगन के नक्षत्रलोक से भी बढ़कर और शीतल हो। ..धर्म कभी धन के लिए न आचरित हो, वह श्रेय के लिए हो, प्रकृति के कल्याण के लिए हो, धर्म के लिए होजयशंकर प्रसाद का यह वाक्य वर्तमान परिदृश्य में सटीक दिखता है। आज भौतिकता के इस दौर में धर्म के नाम पर कई जगह व्यापार शुरू हो गया है। आज कई ऐसे लोग आस्था-विश्वास के बाजार में आ बैठे हैं, जो शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करते हैं। ढोंग-आडंबर का कपटजाल बिछाते हैं। आस्तिक एवं सीधे-सादे नागरिकों को फंसाते और अपने स्वार्थ साधते हैं। अकसर मीडिया इनकी असलियत लोगों को दिखाती रहती है। फिर भी यह सब चल रहा है। वास्तव में साधू शब्द का अर्थ है - जिसने अपनी इंद्रियों को साध (वश में कर) लिया हो । महात्मा शब्द का अर्थ है- महान है जो आत्मा। गुरु शब्द दो अक्षरों - गु (अंधकार) और रु (मिटाने वाला) के मेल से बना है, अर्थात गुरु वह है, जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान के सही मार्ग पर ले चले, किंतु आज क्या स्थिति है, यह किसी से छिपा नहीं है। आजादी के बाद भारत में धर्म का जितना दुरुपयोग राजनीति ने किया. शायद ही किसी और ने किया हो। धर्म के नाम पर संकीर्ण सोच को बढावा देने, लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ भडकाने जैसे घृणित कार्य किए गए। कोई भी धर्म बैर भाव, घृणा, हिंसा आदि नहीं सिखाता। सभी धर्म प्रेम, भाईचारा, सद्भाव, सहनशीलता, मेलजोल की ही सीख देते हैं। सभी पर्व असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म की विजय की ही गाथा गाते हैं, फिर भी हम आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षित समाज में धर्म के नाम पर हो रहे इन सारे छल, कपट, अन्याय, अत्याचार को बर्दाश्त कर रहे हैं? जरूरत इस बात की है कि हम स्वयं यह प्रण लें कि धर्म के नाम पर कट्टरता, कटुता, द्वेष-घृणा फैलाने वाली ताकतों के नापाक इरादों को कभी सफल नहीं होने देंगे तथा पूरे विश्व के सभी धर्मो को सम्मान देने वाली धर्म की धरा - भारतवर्ष को एक बार फिर से जाग्रत करेंगे। मानव सेवा ही वास्तविक धर्म है, यह बात हम सब को समझनी होगी। तभी हमारे भारत से ही पुनः पूरे विश्व को शांति, अहिंसा, सदाचार का संदेश मिलेगा।
धर्म की धारा