पं0 मदनमोहन मालवीय पं. ब्रजनाथ व मौना देवी का परिवार प्रयाग (उ०प्र०) के अहियापुरा में रहता था तभी पिता पं. प्रेमधर मालवीय का निधन हुआ जिसके श्राद्ध के लिए 'गया' में जाकर भगवान् से एक सर्वगुण सम्पन्न पुत्र की याचना की। २५ दिसम्बर १८६१ ई. को बालक का जन्म सूर्यास्त के समय हुआ जिसका नाम 'मदन मोहन' रखा। वैसे तो ये 'व्यास' थे पर इनके पूर्वज 'मालवप्रदेश' (म.प्र.) से आये थे इसलिये 'मालवीय' कहने लगे। पाँच वर्ष की आयु में शिक्षा प्रारम्भ हुई और आठ वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार। अहियापुरी की 'धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला' में प्रवेश हुआ। जहाँ पं. हरदेव से लघु सिद्धांत कौमुदी ग्रंथ पढ़ा। बचपन से ही ये बड़े उद्यमी थे। श्रीमद् भागवत पर प्रवचन यही घर का अर्थोपार्जन का एक मात्र साधन था। गरीब होने से घर भी कच्चा ही था। जगह अभाव के कारण पास के ही गंगाप्रसाद के घर अपनी लालटेन ले पढ़ने जाते और सवेरे लौटते। जब अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा हुई जिसकी फीस ज्यादा थी तो माँ ने अपने सोने की चूड़ियाँ गयाप्रसाद के यहाँ गिरवी रखकर शिक्षा दिलाई। १८८४ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आर्थिक कठिनाइयों के कारण एम.ए. की पढ़ाई पूरी न कर सके। पन्द्रह वर्ष की आयु में मिर्जापुर में अपने चाचा के साथ गये वहाँ सभा में संस्कृत भाषा में तर्कपूर्ण भाषण से प्रसन्न हो सभा की अध्यक्षता करने वाले महान पं. और धनी नंदराय ने अपनी तीसरी कन्या कुन्दनादेवी से विवाह का प्रस्ताव किया। २३ वर्ष की आयु में विवाह सम्पन्न हुआआवश्यकता को देख चालीस रुपये महीने पर शिक्षक की नौकरी कर ली। मालवीयजी जन्मजात कवि भी थे। उनका कवि नाम 'मकरंद' था। 'राधिकारानी' पर पहली कविता थी। एक शिक्षक की सलाह से पं. मदनमोहन मालवीय ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्थापना की दूसरी सभा जो कलकत्ता में हुई जिसकी अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी कर रहे थे। वहाँ राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत भाषण ने सभी को अचंभित कर दिया। वहीं पर उनकी भेंट दैनिक “दि हिन्दुस्थान' के मालिक महाराजा रामपाल सिंह से हुई जिनके अनुरोध पर पत्र के सम्पादक का पद यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि उनके कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। १८६२ में विधि स्नातक की परीक्षा पास कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ कर दी। यह वकालत गरीबों की सहायता के लिए प्रसिद्ध थी। वह झूठा मुकदमा कभी न लेते। राष्ट्र और संस्कृति प्रेमी होने के कारण वह सोचते ऐसी शिक्षा के प्रचार का कोई केन्द्र होना ही चाहिए। उन्हीं दिनों कांग्रेस का इक्कीसवाँ अधिवेशन बनारस में हुआ जिसकी अध्यक्षता 'गोपालकृष्ण गोखले' ने कीमालवीय जी ने विश्वविद्यालय स्थापित करने की सारी योजना कांग्रेस सदस्यों के सामने रखी तभी प्रसिद्ध नेता सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने कहा, “मैं बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में तब तक अंग्रेजी के प्रोफेसर का कार्य निःशुल्क करूँगा जब तक उपयुक्त विद्वान् नहीं मिल जातामालवीयजी ने काशी नरेश चेतनारायण सिंह से 'मकर संक्रांति' के पावन दिवस पर गंगा के पास जमीन दान में प्राप्त कर लीअब आवश्यकता धन की थी। मालवीय ने पूरे देश का दौरा प्रारम्भ किया। जहाँ दरभंगा में भागवत प्रवचन से प्रसन्न हो नरेश ने पच्चीस लाख रुपये दान की घोषणा की वहीं मुस्लिम शासक निजाम ने जब दान देने से मना कर दिया तो एक धनी सेठ की अर्थी में फेंकने वाले पैसों को यह कहकर इकट्ठा करने लगे कि निजाम ने विश्वविद्यालय को धन देने से मना कर दिया है पर हम खाली हाथ वापस नहीं जायेंगे। जब निजाम को यह सूचना मिली तो फिर बुलाकर उसको दान देना पड़ा। दरभंगा नरेश ने अन्य रियासतों से पैसा इकट्ठा करने में जाकर स्वयं भी मदद की। एक करोड़ चौंसठ लाख रुपये दानस्वरूप एकत्र कर 'भिखमंगों के सम्राट' की उपाधि प्राप्त की। एक बार गांधीजी ने कहा था “माँगने की कला उन्होंने अपने बड़े भाई मालवीयजी से सीखी है।" वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों और संस्कृत भाषा के महत्त्व व मूल्यों को स्थापित करने की दृष्टि से चार फरवरी उन्नीस सौ सोलह को तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग्स द्वारा विश्वविद्यालय का शिलान्यास कराया। वह निर्भीक पत्रकार भी थेजहाँ दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक 'गोपाल' व 'अभ्युदय' का संपादन किया वहीं 'दि हिन्दुस्थान टाईम्स' को खरीदकर सफल संचालन भी किया। १६३१ में लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी के साथ दृढ़ता से जो विषय रखा वह 'इण्डियन डायरी' में छपा। १३ अप्रैल १६१६ को जलियावाला बाग में जनरल डायर द्वारा की गयी हत्या के विरोध में शिमला में हुई केन्द्रीय धारा सभा की बैठक में ६ घण्टे भाषण दिया। मालवीयजी अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू के प्रकाण्ड विद्वान थे। जब एक भाषा में बोलते तो दूसरी भाषा के शब्द का उच्चारण न करते थे। परावर्तन के बारे में कहते कि राम-राम और गंगाजल दोनों ही पर्याप्त हैं। देश को स्वतंत्र देखने का सपना लेकर सौ वर्ष जीने की कामना रखने वाले मालवीय जी को बंगाल में जो आखिरी घटना जिसमें हिन्दुओं का नरसंहार हुआ था, ने हिलाकर रख दिया। इस गहरे सदमें को सहन न कर पाने के कारण वे १२ नवम्बर १६४६ को चिरनिद्रा में सो गये। उनकी कामना थी "ग्रामे ग्राम सभा कार्या, ग्रामे ग्रामे कथा शुभा। मल्लशाला पाठशाला, प्रतिपर्व महोत्सवः।।"
पं0 मदनमोहन मालवीय