महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप                               स्वतंत्रता के अप्रतिम पुजारी महाराणा प्रताप मेवाड़ के सिसोदिया वंश में उत्पन्न हुए थे जो अपने को सूर्यवंशी मानते हैं। उनके पिता महाराणा उदयसिंह थे, बनवीर के षड्यंत्र से सुप्रसिद्ध स्वामिभक्त दासी पन्ना धाय ने अपने पुत्र चन्दन की बलि देकर उनकी जीवन रक्षा की थी। महाराणा प्रताप का जन्म विक्रमी संवत् 1597 ज्येष्ठ सुदी तृतीया रविवार सन् 1540 ई. में हुआ था। उनकी माता जयवन्ती बाई पाली के प्रतिष्ठित सरदार अखयराज सोनगरा की पुत्री जयवन्ती बाई थीं। राणा उदयसिंह के पत्रों में प्रताप ज्येष्ठ थे। महाराणा उदयसिंह के समय आगरा में मुगल बादशाह अकबर का शासन थाअकबर ने येन-केन प्रकारेण राजपूत राजाओं से मित्रता स्थापित कर भारत का चक्रवर्ती सम्राट बनने का सपना संजोया था। राजपूताने के राजा मानसिंह जैसे अनेक राजाओं ने अकबर के झाँसे में आकर अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली। केवल मेवाड़ का सिसोदिया राजकल ही ऐसा था, जिसने मुगलों से हमेशा लोहा लिया था। 1568 में राणा उदय सिंह के शासन काल में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। महाराणा उदय सिंह विपरीत परिस्थितियों के कारण चित्तौड़ के सेनापति का दायित्व जयमल्ल राठौर और पत्ता चूडावत को सौंप कर अपने परिवार के साथ अरावली के पहाड़ों में चले गए। प्रताप भी उस समय मन मसोस कर उनके साथ चले दिएअकबर ने चित्तौड़ दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। जयमल्ल और पत्ता के नेतृत्व में युद्ध हुआ। 25 फरवरी, 1568 का वह पावन दिन 'बलिदान दिवस' बन गया। चित्तौड़ के तीसरे जौहर में हजारों वीरांगनाओं ने सशरीर अपनी आहुति दी। रणबांकुरों ने युद्ध में अपना बलिदान दिया। परन्तु चित्तौड़ अकबर के कब्जे में चला गया। उदय सिंह इस सदमे को सह नहीं कर सके वे लगातार बीमार रहने लगे। चार साल तक गोगुन्दा के राजमहलों में स्वयं को बन्द कर लिया और 28 फरवरी, 1572 को उनका स्वर्गवास हो गया। महाराणा उदय सिंह ने अपनी कनिष्ठ रानी के आग्रह पर उसके पुत्र जगमल्ल को अपनी मृत्यु से पूर्व ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। प्रताप ने पिता की इच्छानुसार, प्रभु रामचन्द्र के आदर्श का पालन करते हुए सिंहासन त्याग कर मेवाड़ से दूर कहीं जाने की तैयारी कर ली परन्तु वहाँ के सरदार भली भाँति जानते थे कि आज मेवाड़ पर ही नहीं, सारे भारत पर मुगलों का आतंक फैला हुआ है। इस संकटकाल में मेवाड़ की तथा हिन्दू गौरव की रक्षा केवल प्रताप सिंह ही कर सकते हैं। इसलिए चूड़ावत सरदार कृष्ण सिंह तथा प्रमुख सेनापति झालाराव के प्रयासों से फाल्गुन सुदी 15 विक्रमी संवत् 1628 तदनुसार 3 मार्च, 1572 को चित्तौड़ से 19 मील उत्तर पश्चिम में गोगुन्दा में प्रताप का राज्याभिषेक किया गया। 4 सिंहासन पर आसीन होते ही राणा प्रताप ने मात भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए यह दृढ़संकल्प लेते हुए कहा था-"चित्तौड़ को स्वतंत्र करने तक मैं सोने-चाँदी की थाली में भोजन नहीं करूँगा। मुलायम गद्दी पर नहीं सोऊंगा, राज-प्रासाद में वास्तव्य नहीं करूंगाइनके स्थान पर मैं पत्तल में भोजन करूँगा, जमीन पर सोऊंगा, झोपड़ी में वास करूंगा और चित्तौड़ को जब तक स्वाधीन नहीं करा लेता, तब तक दाढ़ी नहीं कटवाऊँगा।" - महाराणा का यह दृढ़ निश्चय देखकर अब्दुलरहीम खानखाना ने कहा था "धरममरहसी, रहसीधरा खिसजासे खुरसाणा, अमर विसंभर ऊपर रखियो नहचो राणा" अर्थात् धर्म रहेगा, पृथ्वी भी रहेगी, पर मुगल-साम्राज्य एक दिन नष्ट को जाएगा-हे राणा विशम्भर भगवान का भरोसा करके अपने निश्चय को अटल रखनाउन्होंने जीवनभर इस प्रतिज्ञा का निर्वाह किया। उन्हें अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा पर वे कभी विचलित नहीं हुए। वे अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ दर-दर जंगलों में भटकते रहे पर उन्होंने हार नहीं मानी। - अकबर को मेवाड़ की स्वाधीनता गले में कांटे की तरह खटकती थी। अत: उसने महाराणा प्रताप को उनकी आधीनता स्वीकार कराने के लिए तरह-तरह से अनेक प्रलोभन दिए। राजा मानसिंह को उन्हें मनाने भेजा पर महाराणा प्रताप अपने संकल्प पर अडिग रहे। अत: अकबर ने राजा मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में 18 जून 1576 को मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। हल्दी घाटी नामक स्थान पर श्रावण बदी 7 संवत् 1633 को भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में अकबर की सेना में 80 हजार सैनिक थे जबकि महाराणा प्रताप के पास कुल 22 हजार योद्धा थे। जीतते जीतते राणा प्रताप पराजित होने लगे तब वीर झाला सरदार ने, राणा का ध्वज मुकुट अपने सिर पर रखकर, स्वयं को राणा प्रताप घोषित कर युद्ध किया। राणा प्रताप चेतक नामक घोड़े पर सवार होकर रणक्षेत्र से बाहर आए किन्तु हल्दी घाटी से दो मील दूर बलिया नामक गाँव के पास एक घाटी को पार करते हुए चेतक ने भी वीरगति पाईइस भयंकर हार के बाद भी राणाप्रताप निराश नहीं हुए। भामाशाह की सहायता से उन्होंने पुनः सेना संगठित कीदानवीर भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण सम्पति उन्हें दान में दे दी थीइस नवगठित सेना की सहायता से महाराणा प्रताप ने मुगलों के साथ फिर अनेक युद्ध किए और चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर सारे मेवाड पर पन: अधिकार कर लिया। संभवत: वे भारतमाता को स्वतंत्र कराने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते पर सन 1597 ई. की 19 जनवरी को उनका शरीरान्त हो गया परन्तु अरावली के कण कण में महाराणा का जीवन चरित्र अंकित है जो शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिए प्रकाश का काम देगा। उस समय उनकी आयु मात्र 57 वर्ष की थी। इस महान सेनानायक की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसने ऐसे समय स्वतंत्रता की लौ जगाए रखी जब अधिकांश भारतीय वीर आत्मसम्मान तथा स्वाभिमान त्यागकर मुगल सम्राट अकबर की मीठी, पर जहर भरी नीति के कारण अपनी स्वतंत्रता को उसके पास गिरवी रखते चले जा रहे थे। उन्होंने अपने दृढ़ चरित्र बल से यह सिद्ध कर दिया कि मातृभूमि की स्वतंत्रता के समक्ष कोई भी कष्ट या दुख बड़ा नहीं है। राणा प्रताप के इस बेसमय अवसान पर सम्पूर्ण भारत विह्वल हो उठा। उनकी गौरवगाथा का वर्णन श्याम नारायण पाण्डेय ने इन शब्दों में किया है                                                          भरा हुआ था उर प्रताप का गौरव की चाहों से। फूंक दिया अपना शरीर हम दु:खियों की आहों से। जग-वैभव-उत्सर्ग किया भारत का वीर कहाकरमाता-मुख लाली प्रताप ने रख ली लहू बहाकर। निकल रही जिसकी समाधि से स्वतन्त्रता की आगी। यहीं कहीं पर छिपा हुआ है वह स्वतन्त्र-वैरागी।।