रमाकान्त केशव (बालासाहब) देशपांडे जी का जन्म अमरावती (महाराष्ट्र) में केशव देशपांडे जी के घर में 26 दिसम्बर, 1913 को हुआ था.
अमरावती, अकोला, सागर, नरसिंहपुर तथा नागपुर में पढ़ाई पूरी करने के 1938 में वे राशन अधिकारी के पद नियुक्त हुए. उन्होंने एक बार एक व्यापारी को गड़बड़ करते हुए पकड़ लिया; पर बड़े अधिकारियों के साथ मिलीभगत के कारण वह व्यापारी छूट गया. इससे बालासाहब का मन खिन्न हो गया और उन्होंने नौकरी छोड़कर अपने मामा गंगाधरराव देवरस जी के साथ रामटेक में वकालत प्रारम्भ कर दी.
1926 में नागपुर की पन्त व्यायामशाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने थे. द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी से भी उनकी निकटता रही. उनकी ही तरह बालासाहब ने भी रामकृष्ण आश्रम से दीक्षा लेकर 'नर सेवा, नारायण सेवा' का व्रत धारण किया था. 1942 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में उन्होंने सक्रिय भाग लिया और जेल भी गए. 1943 में उनका विवाह प्रभावती जी से हुआ.
स्वाधीनता मिलने के बाद बालासाहब फिर से राज्य सरकार की नौकरी में आए. 1948 में उनकी नियुक्ति प्रसिद्ध समाजसेवी ठक्कर बापा की योजनानुसार मध्य प्रदेश के वनवासी बहुल जशपुर क्षेत्र में हुई. इस क्षेत्र में रहते हुए उन्होंने एक वर्ष में 123 विद्यालय तथा वनवासियों की आर्थिक उन्नति के अनेक प्रकल्प प्रारम्भ करवाए. उन्होंने भोले वनवासियों की अशिक्षा तथा निर्धनता का लाभ उठाकर ईसाई पादरियों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण के षड्यन्त्रों को देखा. यह स्थिति देख वे व्यथित हो उठे.
नागपुर लौटकर उन्होंने सरसंघचालक श्री गुरुजी से इस विषय पर चर्चा की. उनके परामर्श पर बालासाहब ने नौकरी से त्यागपत्र देकर जशपुर में वकालत प्रारम्भ की. पर, यह तो एक माध्यम मात्र था, उनका उद्देश्य तो निर्धन व अशिक्षित वनवासियों की सेवा करना था. अतः 26 दिसम्बर 1952 में उन्होंने जशपुर महाराजा श्री विजय सिंह जूदेव से प्राप्त भवन में एक विद्यालय एवं छात्रावास खोला. इस प्रकार 'वनवासी कल्याण आश्रम' का कार्य प्रारम्भ हुआ.
1954 में मुख्यमन्त्री रविशंकर शुक्ल ने ईसाई मिशनरियों की देशघातक गतिविधियों की जांच के लिए नियोगी आयोग का गठन किया. इस आयोग के सम्मुख बालासाहब ने 500 पृष्ठों में लिखित जानकारी प्रस्तुत की. इससे ईसाई संगठन उनसे बहुत नाराज हो गए; पर वे अपने काम में लगे रहे.
उनके योजनाबद्ध प्रयास तथा अथक परिश्रम से वनवासी क्षेत्र में शिक्षा, चिकित्सा, सेवा, संस्कार, खेलकूद के प्रकल्प बढ़ने लगे. उन्होंने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए भी अनेक केन्द्र बनाए. इससे सैकड़ों वनवासी युवक और युवतियां पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन कर काम करने लगे.
कार्य की ख्याति सुनकर 1977 में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने जशपुर आकर कार्य को स्वयं देखा. इससे प्रभावित होकर उन्होंने बालासाहब से सरकारी सहायता लेने का आग्रह किया; पर बालासाहब ने विनम्रता से इसे अस्वीकार कर दिया. वे जनसहयोग से ही कार्य करने के पक्षधर थे.
1975 में आपातकाल लगने पर उन्हें 19 महीने के लिए 'मीसा' के अन्तर्गत रायपुर जेल में बन्द कर दिया गया. पर, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. आपातकाल की समाप्ति पर 1978 में 'वनवासी कल्याण आश्रम' के कार्य को राष्ट्रीय स्वरूप दिया गया. आज पूरे देश में कल्याण आश्रम के हजारों प्रकल्प चल रहे हैं. बालासाहब ने 1993 में स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से सब दायित्वों से मुक्ति ले ली. उन्हें देश भर में अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया.
21 अप्रैल, 1995 को उनका देहान्त हुआ. एक वनयोगी एवं कर्मवीर के रूप में उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा.