माँ शारदा शक्तिपीठ मैहर


 









खास बातें


- मां को पहला फूल और श्रृंगार आल्हा ही करते हैं
- रात के दो से पांच बजे के बीच यहां कोई नहीं रुकता
- तड़के मंदिर की घंटियां बजने लगती हैं
- सुन्दर तालाब में दोनों भाई कुश्ती का अभ्यास करते थे
- दो भाई मां शारदा की पूजा सबसे पहले करते है आज तक देख नहीं सका कोई भी
- मां की चरणों में रखी टेढ़ी तलवार को आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया

 

भारत में शक्ति साधना के कुछ विशेष पावन स्थल हैं जो शक्तिपीठ के नाम से जाने जाते हैं। हिंदुस्तान का ह्रदय कहलाने वाले मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में स्थित मैहर नगर में 600 फीट की ऊंचाई पर हरी-भरी त्रिकुटा पहाड़ी पर स्थित माँ दुर्गा के शारदीय स्वरुप श्रद्धेय देवी माँ शारदा का अद्भुत व चमत्कारी मंदिर है जो मैहर देवी शक्तिपीठ के नाम से विख्यात है। नवरात्रि के दिनों में देवी के इस धाम में लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है।

 


शक्तिपीठ जहां मां का कंठ गिरा था
मैहर का अर्थ है-'मां का हार'। माना जाता है भगवान शंकर के तांडव नृत्य के दौरान उनके कंधे पर रखे माता सती के शव से गले का हार त्रिकूट पर्वत के शिखर पर आ गिरा था, इसलिए इस पवित्र स्थल की गणना शक्तिपीठों में की जाती है। पूरे भारत में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है। मान्यता है कि इस मंदिर में श्रद्धा भक्ति से ढोक लगाने वाले प्रत्येक श्रद्धालु जन की मनोकामना माँ शारदा अवश्य पूरी करती हैं,उनके कष्ट-क्लेशों को दूर करती हैं।

सुबह पूजा के मिलते हैं सबूत
स्थानीय लोग मानते है कि आज भी रात 8 बजे मंदिर की आरती के बाद साफ़-सफाई होती है और फिर मंदिर के सभी कपाट बंद कर दिए जाते हैं।इसके बावजूद जब मंदिर सुबह पुनः खोला जाता है तो मंदिर में माँ की आरती और पूजा किए जाने के सबूत मिलते हैं। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन सबसे पहले आल्हा और उदल ही करते हैं।

 आल्हा और उदल कौन?  
आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन सबसे पहले आल्हा और उदल दोनों भाई ही करते हैं। माता के परम भक्त बुंदेलखंड के दो वीर योद्धा भाई आल्हा और उदल परमार के सामंत थे। कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नाम के एक कवि ने आल्हखंड नामक एक काव्य रचा था जिसमें इन वीरों की गाथा वर्णित है। इस ग्रन्थ में इन दो भक्त वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णनं किया गया है।आखिरी युद्ध उन्होंने सन 1182 में पृथ्वीराज चौहान के साथ किया था। पृथ्वीराज चौहान की युद्ध में हार हुई पर इस युद्ध में उदल वीरगति को प्राप्त हुए। गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया परन्तु आल्हा के मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने संन्यास लेकर 12 वर्षों तक माँ की कठोर तपस्या की थी। 

आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारते थे इसलिए प्रचलन में देवी का नाम शारदा माई हो गया। मां के परम भक्त आल्हा ने माँ के आदेशानुसार अपनी तलवार माँ के चरणों में समर्पित कर दी एवं देवी आज्ञा से उसकी नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। मंदिर परिसर में अनेकों ऐतिहासिक महत्त्व के अवशेष अभी भी आल्हा व पृथ्वीराज  चौहान के बीच जंग की गवाही देते हैं।

मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करते हैं
मैहर मंदिर के महंत बताते हैं कि अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करते हैं और जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है। इस रहस्य पर से पर्दा हटाने के लिए कई बार वैज्ञानिकों की टीम भी यहाँ पहुँच चुकी है लेकिन रहस्य अभी भी बना हुआ है। मंदिर के पास ही आल्हा की स्मृति में एक सुन्दर तालाब है,कहा जाता है कि इस इलाके में दोनों भाई ज़ोर-आज़माइश के लिए कुश्ती का अभ्यास करते थे।आज भी ये अखाड़े उन वीरों की गाथा का गान करते हैं और मंदिर दर्शन करने वाले तीर्थ यात्री अखाड़े में जाकर माथा टेकते हैं। 

मंदिर के ठीक पीछे भव्य मंदिर है जिसमें अमरत्व का वरदान प्राप्त आल्हा की तलवार उसी की विशाल प्रतिमा के हाथ में थमाई गई है। माँ शारदा के मंदिर को रात दो  से पांच बजे के मध्य बंद कर दिया जाता है।इसके पीछे मान्यता है कि इसी अवधि में ये दोनों भाई माँ के दर्शन करने आते हैं,माँ का पूजन-श्रृंगार करते हैं।इसलिए रात को दो से पांच बजे के बीच यहाँ कोई नहीं ठहरता। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि जो हठ पूर्वक यहां रुकने की कोशिश करता है,उसके साथ कोई भी अप्रिय घटना घट सकती है,मनुष्य तो क्या अन्य जीव भी इस दौरान इस स्थान को छोड़ देते है।